मेनू टॉगल करें
Toggle personal menu
लॉग-इन नहीं किया है
Your IP address will be publicly visible if you make any edits.

भारतीय शिक्षाशास्त्रियों के विचार

भारतपीडिया से
WikiDwarf (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १७:१९, १५ जून २०२० का अवतरण (नया लेख बनाया गया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

शिक्षा आद्य शंकराचार्य (७८८-८२० ई.), स्वामी दयानन्द (१८२४-१८८३), स्वामी विवेकानन्द (१८७३-१९०२), श्रीमती एनी बेसेण्ट (१८४७-१९३३), गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर (१८६१-१९४१), महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय (१८६१-१९४५), महात्मा गाँधी (१८६९-१९४८), महर्षि अरविन्द (१८७२-१९५०) और भीमराव आम्बेडकर (१८९१-१९५६) आदि विचारक आधुनिक भारत के महान शिक्षा-शास्त्री माने जाते हैं। वे अन्य विचारकों द्वारा ग्रहण की हुई भारतीय शिक्षा से सम्बन्धित विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहाँ भारतीय शिक्षा-शास्त्रियों की मुख्य विचारधारा का अवलोकन किया जायगा और यह भी बतलाने का प्रयत्न किया जायगा कि भारतीय विचारकों के शिक्षा-सम्बन्धी विचारों में मुख्य पाश्चात्य शिक्षा-दर्शन की छाप कहाँ तक पायी जाती है।

प्रकृतिवाद और भारतीय शिक्षा-शास्त्री

पाश्चात्य प्रकृतिवाद (naturalism) में अनेक न्यूनताएँ पायी जाती हैं। किन्तु यदि इसे संकुचित भाव से न समझा जाय तो यह विद्यार्थियों के लिए अधिक भावपूर्ण ढंग से सीखने के सहायक हो सकता है। इस प्रकृतिवाद ने निस्सन्देह आधुनिक शिक्षा के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पक्षों के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान किया है। प्रकृतिवाद का व्यावहारिक रूप प्राय: सभी भारतीय विचारकों के जीवन और कार्य में विद्यमान था।

स्वामी दयानन्द सरस्वती प्रकृति को ब्रह्या एवं जीव के समान ही सत्य मानते थे और वैदिक युग की शिक्षा के आधार पर आधुनिक शिक्षा का निर्माण करना चाहते थे। वैदिक काल में आम लोग प्रकृति की उपासना करते थे और प्रकृति के अत्यधिक निकट रहते थे। स्वामी दयानन्द के आदर्शों पर चलने वाले गुरुकुलों `प्रकृति की ओर लोटो' के नारे को व्यवह्रत रूप देखा जा सकता है। एक प्रकृतिवादी के समान स्वामी विवेकानन्द ने पुस्तकीय ज्ञान का बहुत बड़ा विरोध किया है। उनके अनुसार शिक्षा में जीवन के व्यावहारिक पक्ष की अवहेलना नहीं होनी चाहिए। जीवन के व्यावहारिक पक्ष से स्वामी विवेकानन्द का अभिप्राय भौतिक समृद्धि अथवा धन-संचय नहीं था, प्रत्युत उन्होंने व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकताओं की नैसर्गिक सन्तुष्टि की ओर संकेत किया है। उन्होंने हमें कृत्रमता पर और अन्धविश्वास से रहित जीवनयापन करने की अनुमति दी है।

बह्रावादी विचारधारा की प्रवर्त्तक मेडम हेलेन पेट्रोव्ना ब्लावाट्स्की की शिष्या श्रीमती एनी बेसेण्ट भारत को ह्रदय से प्यार करती थीं। उन्होंने सन् १८९८ में बनारस में सेण्ट्रल हिन्दू कालेज की स्थापना करके भारतीय शिक्षा को योगदान दिया है। एनी बेसेण्ड ने हमें स्मरण कराया है कि शारीरिक शिक्षा महत्त्वपूर्ण शिक्षा है और मानसिक तथा नैतिक क्रियाओं के लिए एक स्वस्थ शारीरिक आधार प्रदान करना उसका लक्ष्य होना चाहिए। सभी क्रियाएँ शरीर पर आधारित होती हैं, इसलिए शिक्षा में इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

टैगोर कहा करते थे कि "विधाता ने हमें नगरों में ईंट एवं गारे के बीच जन्म लेने के उद्देश्य से नहीं बनाया।" वे कहते थे "वृक्ष, पौधे, शुद्ध, वायु, स्वच्छ तालाब आदि बैंचों, श्यामपट्टों, पुस्तकों एवं परीक्षाओं से कम आवश्यक नही हैं।" अपने प्रसिद्ध लेखों (शिक्षा-समस्या) में उन्होंने प्रकृतिवाद का समर्थन किया है। उन्होंने लिखा है, "यदि एक आदर्श विद्यालय की स्थापना करना है तो इसे मानव के निवासस्थान से दूर एकान्त में विस्तृत आकाश के तले, विस्तृत क्षेत्र पर वृक्षों एवं पौधों के बीच में स्थापित करना चाहिए।"

महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय सरल एवं साधु प्रकृति के व्यक्ति थे। वे प्राकृतिक ढंग से जीवनयापन करते थे और लोगों को प्राकृतिक नियमों का अनुसरण करने की सलाह भी दिया करते थे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के भवननिर्माण के समय भी इस बात का ध्यान रखा गया कि कृत्रिमता न आने पाये और छात्रों को प्रकृति के समीप रहने का अवसर मिले। महात्मा गांधी ने भी बालक की प्राकृतिक शक्तियों के विकास पर बल दिया है। उनके अनुसार, शिक्षा से तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में सर्वश्रेष्ठ तत्त्वों का विकास है। उन्होंने विद्यार्थियों को शरीर के उपेक्षा मन की अनुमति कभी नहीं दी। सभी प्राकृतिक शक्तियों का विकास प्राकृतिक वातावरण में होता है। गाँधी जी को प्राकृतिक वातावरण से बड़ा प्रेम था। प्राचीन भारतीय महात्माओं की भाँति वे प्रकृति के मध्य में रहना पसन्द करते थे। उनके `आश्रम' प्रकृति की गोद में स्थापित किये गये थे। उन्होंने मनुष्य को भोजन, औषधि, शिक्षा तथा अन्य क्षेत्रों में प्रकृति का अनुसरण करने का परामर्श दिया।

एक प्रकृतिवादी के रूप में श्री अरविन्द ज्ञान-प्राप्ति में इन्द्रियों के महत्त्व को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार दृष्टि, श्रवण, घ्राण, स्पर्श, स्वाद और मस्तिष्क या मन - ये छ: इन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति में सहायक होती हैं। मन के अतिरिक्त अन्य सभी इन्द्रियाँ अपनी क्रियाओं के लिए क्रमश: नेत्र, कर्ण, वासिका, त्वचा और जिह्वा-इन शारीरिक अवयवों पर निर्भर होती हैं। अत: इन इन्द्रियों का प्रशिक्षण करना शिक्षा का एक बहुत बड़ा कार्य है। महर्षि अरविन्द के अनुसार, शिक्षक केवल निर्देशक है। उसे बालक को केवल ज्ञान प्राप्ति की विधि से परिचित कराना है क्योंकि बालक स्वत: ज्ञान प्राप्त कर लेगा। उनके अनुसार, शैशवावस्था में बालक का प्रशिक्षण बहुत महत्त्वपूर्ण है और इस अवस्था में सम्पूर्ण शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से जी जानी चाहिए। पाण्डिचेरी में श्री अरविन्द आश्रम में प्राकृतिक नियमों का बड़ा आदर है।

आदर्शवाद और भारतीय शिक्षा-शास्त्री

पाश्चात्य आदर्शवादियों (Idealists) का विश्वास है कि यथार्थता विचारों में ही है। आदर्शवाद पदार्थों की अपेक्षा विचारों पर अधिक बल देता है। पदार्थ से मस्तिष्क अधिक यथार्थ माना जाता है। इसी प्रकार शरीर से आत्मा को अधिक यथार्थ माना जाता है। आदर्शवाद धार्मिक शिक्षा को अस्वीकार नहीं करता है। कुछ आदर्शवादी प्रवृत्तियों की छाप भारतीय शिक्षा-शास्त्रियों के दर्शन में सुगमतापूर्वक पायी जा सकती है।

स्वामी दयानन्द ने गुणवान् बनने के लिए शिक्षा को आवश्यक माना है। उन्होंने ब्रह्मचार्य पर बल दिया है और वे चाहते थे कि नैतिक नियमों को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक आवश्यकतायों की सन्तुष्टि की जाय। उनके अनुसार नैतिक विकास शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। उन्होंने माता-पिता को बालकों में आत्म-नियन्त्रण और अच्छी संगति की आदत का विकास करने का परामर्श दिया।

स्वामी विवेकानन्द ने संसार को शिक्षा का वास्तविक अर्थ यह कहकर बताया है कि शिक्षा मनुष्य में विद्यमान पूर्णता का प्रकाशन है। उन्होंने एकाग्रता को ज्ञान-प्राप्ति का एकमात्र साधन माना है। एकाग्रता की शक्ति का विकास करने के लिए ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है। बालक को एकाग्रता का विकास करने के लिए जिससे अपने व्यक्तिगत लाभों को त्यागकर अपने जीवन को दूरों की सेवा में समर्पित कर दिया हो।

श्रीमती ऐनी बैसेण्ट ने भी ब्रह्मचर्य के आदर्श का समर्थन किया है। उन्हें हिन्दू धर्म से बड़ा प्रेम था और उन्होंने निश्चयपूर्वक कहा कि पश्चिम की शिक्षा पूर्व के लिए आदर्श कभी नहीं बन सकती। शिक्षा का कार्य बालक को अपनी आत्मा का ज्ञान प्रदान करना है जो भौतिक शरीर से अधिक यथार्थ है। भारतीय शिक्षाशास्त्रियों को मानसिक, धार्मिक और नैतिक शिक्षा की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर एक महान ब्रह्मवादी थे और आत्म-ज्ञान को शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य मानते थे। वे आदर्शवाद के प्रतीक थे और ईश्वर में विश्वास करते थे। उन्होंने अध्यात्मिक विकास के लिए ललित कलाओं के अध्ययन का समर्थन किया है। उन्होंने एक सार्वभौमिक मस्तिष्क की कल्पना की जो वैयक्तिक मस्तिष्क से उच्च कोटि का होता है। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में प्रेम और सार्वभौमिकता पर बल दिया है। महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखते थे। वे अत्यन्त धार्मिक व्यक्ति थे और शिक्षा के द्वारा मनुष्य के भाग्य का सुधार करना चाहते थे। उन्हें प्राचीन शैक्षिक विचारधारा से बड़ा प्रेम था और उसे विद्यार्थियों को सिखाना चाहते थे। उन्होंने संस्कृत, भारतीय संस्कृति, भारतीय इतिहास और भारतीय दर्शनशास्त्र के अध्ययन पर बल दिया है। उनके अनुसार शिक्षा से अभिप्राय ईश्वर-विषयक ज्ञान का अनुसन्धान है। महात्मा गाँधी का विश्वास था कि इस संसार में ईश्वर ही अन्तिम वास्तविकता है। मनुष्य को उसे पहचानना चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य बालको को ईश्वर को जानने तथा `आत्मा' को पहचानने के योग्य बनाना है। वे धर्म के परिम्परागत रूप का विरोध करते थे और चाहते थे कि बालक धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझें और अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में उसका अभ्यास करें। उन्होंने नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा की उपेक्षा नहीं की है। महर्षि अरविन्द ने हमें अलौकिक मस्तिष्क की भावना प्रदान की है जो वर्तमान एवं सम्भाव्य स्थितियों, `स्वतन्त्र और सम्बन्धित' तथा `ज्ञान और अज्ञान' के दो गोलाद्धों को मिलाती है। यह एक आदर्शवादी विचार है। वे मस्तिष्क को चार तहों--चित्त, मनस् बुद्धि और सत्य के अन्तर्ज्ञान से युक्त मानते है। उसके अनुसार वास्तविक शिक्षा मनुष्य की आत्मा में प्रवेश करती है और बालक को अपनी बौद्धिक तथा नैतिक क्षमताओं का उच्चतम सीमा तक विकास करने के योग्य बनाती है।

भारतीय शिक्षा-शास्त्रियों के विचार प्रकृतिवाद की बेड़ी में जकड़े नहीं है। जहाँ पर उन्होंने प्रकृति से शिक्षा लेने का उपदेश दिया है और प्राकृतिक नियमों का अनुसरण करने की सलाह दी है वहीं पर उन्होंने, प्रकृति के रचयिता की ओर भी संकेत किया है। महामना मालवीय, टैगोर, गांधी, दयानन्द, विवेकानन्द, अरविन्द आदि सभी विचारकों ने ईश्वर में आस्था प्रकट की है और प्रकृति को अन्तिम सत्य न मान कर परम सत्य को सत्, चित् एवं आनन्द के रूप में देखा है। सभी ने अनेकता में एकता के दर्शन किये हैं और `सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' की उपासना में जीवन को सार्थक माना है। उन्होंने जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष मानते हुए आत्मानुभूति पर बल दिया है। इस दृष्टि से सभी भारतीय शिक्षा-सम्बन्धी आदर्शवादी ठहरते हैं। सभी ने पाठ्यक्रम में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मानवतावादी विषयों के सम्मिलित किये जाने पर बल दिया है। नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास सभी का लक्ष्य रहा है। चरित्र के उन्नयन में सभी का विश्वास रहा है। सभी ने धार्मिक शिक्षा का समर्थन किया है। सभी के लिए धर्म का बाह्रा पक्ष महत्त्वहीन किन्तु आध्यात्मिक पक्ष महत्वपूर्ण रहा है।

प्रयोजनवाद और भारतीय शिक्षा-शास्त्री

प्रयोजनवाद (Pragmatism) दर्शन का एक नवीन समप्रदाय है जिसकी उत्पत्ति अमेरिकी जीवन पद्धति से हुई है। फिर भी कुछ प्रयोजनवादी प्रवृत्तियाँ भारतीय विचारकों के शिक्षा सम्बन्धी विचारों में भी सुगमतापूर्वक पायी जा सकती हैं। उदाहरणार्थ, स्वामी दयानन्द देश की सामाजिक आवश्यकताओं से अवसत थे और इन आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षा-योजना बनाना चाहते थे। उनके शिक्षा-सम्बन्धी कार्यक्रम में व्यक्ति के व्यावहारिक अनुभव सम्मिलित हैं। स्वामी विवेकानन्द सामूहिक शिक्षा का समर्थन करते हैं और कहते हैं कि शिक्षा की देश में जनसाधारण की आवश्यकताओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। शिक्षा में जीवन के व्यावहारिक पक्ष पर ध्यान देना आवश्यक है। यह शिक्षा निरर्थक है जिसका लक्ष्य बालकों को समाज के लिए उपयोगी बनने के योग्य बनाना नहीं होता है।

श्रीमती ऐनी बेसेण्ट हिन्दू समाज की तत्कालीन दशाओं से प्रसन्न नहीं थीं और उन्होंने समाज से सुधार करने हेतु अपना जीवन समर्पति कर दिया। उन्होंने इस बात का समर्थन किया कि शिक्षा सर्वतोन्मुखी होनी चाहिए। उनके अनुसार बालक में कर्त्तव्य की भावना उत्पन्न की जानी चाहिए जिससे उसमें सामाजिक चेतना का विकास हो सके और वह अपने माता-पिता, बहिनों और भाइयों के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन कर सके।

अमरीकी प्रयोजनवाद का अंग्रेजी संस्करण सामान्यत: `मानववाद' कहलाता है और एक पिछले अध्याय में हम वर्णन कर चुके हैं कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर एक महान मानववादी थे। उन्होंने मनुष्य को समस्त वस्तुओं का मापदण्ड माना है। उनका संसृति का सिद्धान्त भी मानवीय था। टैगोर ईश्वर को भी मानव मानते थे।

पण्डित मदन मोहन मालवीय एक व्यावहारिक बुद्धि के व्यक्ति थे। जीवन के प्रति उनका वही मानवतावादी दृष्टिकोण था जो कि प्रयोजनवाद का आधार है। उन्हें सामाजिक आवश्यकताओं की चेतना थी और वे समाज में सुधार करना चाहते थे। उनके अनुसार, सामाजिक बुराइयों का कारण हिन्दूत्व के कुछ सांस्कृतिक आदर्शों की अवहेलना थी। इसलिए उन्होंने हिन्दूत्व के लिए कार्य किया और अपने शिक्षा-सम्बन्धी विचारों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की।

महात्मा गांधी निस्सन्देह एक आदर्शवादी थे और `परम शक्ति' में उनका दृढ़ विश्वास था। किन्तु उन्होंने जीवन के व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा नहीं की। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को सत्य के साथ एक प्रयोग माना है। प्रयोग और अनुभव प्रयोजनवाद के आधारभूत तत्त्व हैं। उन्होंने केवल उन्हीं सिद्धान्तों का समर्थन किया जिनको उन्होंने स्वयं कार्यरूप में परिणत किया। इस दृष्टिकोण से उन्हें एक प्रयोजनवादी भी कहा जा सकता है। महर्षि अरविन्द घोष सार्वभौमिक मस्तिष्क में विश्वास करते थे और हार्दिक भाव से आदर्शवादी थे किन्तु उन्होंने कभी भी अपने आदर्शवाद के व्यावहारिक पक्ष को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा। उन्होंने कहा कि पाठ्यक्रम बालकों की रुचियों पर आधारित होना चाहिए और वास्तविक जीवन में उनके लिए उपयोगी होना चाहिए। शिक्षा-योजना में शिक्षक का स्थान निर्देशक और मित्र के रूप में होना चाहिए। उनका यह विचार प्रयोजनवादियों के विचारों से मिलता-जुलता है।

संकलनवाद (Eclecticism) और भारतीय शिक्षा-शास्त्री

भारतीय राष्ट्रीय चरित्र के बिल्कूल अनुकूल, समकालीन भारतीय शिक्षा और शिक्षा-दर्शन की प्रकृति संश्लेषक है। हम शिक्षा के सभी क्षेत्रों में निस्सन्देह आदर्शवादी दर्शन के समर्थक हैं। किन्तु यह आदर्शवादी दृष्टिकोण समय-समय पर अनेक और विविध प्रकार के दार्शनिक विचारों से प्रभावित हुआ है।

समकालीन परिवर्तनों के कारण राष्ट्रीय चरित्र इतना शीघ्र परिवर्तनशील है। विज्ञान पर आधारित आधुनिक उद्योगों के आगमन और साथ में तीव्र सामाजिक परिवर्तनों के कारण शैक्षिक समस्याओं में बहुत से परिवर्तन हुए हैं। किन्तु परिवर्तनशील संसार में केवल जीविकोपार्जन की विधि सीखना ही शिक्षा का लक्ष्य नहीं हो सकता। शैक्षिक उद्देश्य के अन्तर्गत इससे अधिक अपेक्षाएँ हैं। कुछ लोगो की धारणा है कि बालकों को परिवर्तनशील समय के लिए प्रशिक्षित करने का एकमात्र मार्ग उन्हें ऐसी शिक्षा प्रदान करना है जो स्वत: "विकासशील" है। उदाहरणार्थ, डीवी का आदेश है कि मनुष्य को सदैव अपने परिवर्तनशील वातावरण के प्रति जागरूक तथा उस वातावरण के द्वारा सतत् उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान में क्रियाशील होना चाहिए। कुछ अन्य लोग ऐसे हैं जिनकी धारणा है कि मौलिक एवं चिरन्तन सत्य को केन्द्रबिन्दु मानकर बनायी गयी अध्ययन कि योजना उच्च परिमाण का स्थायित्व प्रदान करती है, प्रत्युत मानवता के लिए प्रत्याशी है। इसके अतिरिक्त यह मानते हुए कि हम विशुद्ध और दृढ़ आदर्शवादी हैं, हम भारतवासियों का आदर्शवादी सिद्धान्त एक विस्तृत और सर्वव्यापी सिद्धान्त है। इसके अन्तर्गत विभिन्न सम्प्रदाय सम्मिलित हैं और इस प्रकार इस सिद्धान्त को सदैव प्रबल अतिवादी रूप में, कभी भी नहीं सराहा गया है। वह व्यक्ति और समाज के आध्यात्मिक उन्नयन का सबल आधार रहा है। प्रयोनावाद भी अपने अतिवादी रूप में अनिश्चित दिशा की ओर सदा प्रगति करते रहने का सन्देश देता है। भारतीय शिक्षा-शास्त्री प्रयोनावादी की भाँति प्रगति का सन्देश तो देते हैं किन्तु व्यक्ति व समाज की जीवन-नौका को अस्पष्ट दिशा की ओर न संचालित कर सुनिश्चित दिशा की ओर संचालित करने का परामर्श देते हैं। पश्चिमी यथार्थवादियों ने जगत् के ठोस एवं यथार्थ धरातल पर रहने का संदेश दिया है। यथार्थवादी विचारक व्यावहारिक जगत् की उपेक्षा सहन नहीं करता। भारतीय दार्शिनिकों ने भी जगत् की व्यावहारिक सत्ता स्वीकार की है। जगत् को माया मानने वाले आचार्य शंकर ने भी जगत् को व्यावहारिक दृष्टि से सत्य माना है। भारतीय विचारक मानते हैं कि शास्त्रों में कुशल होते हुए भी लोग व्यवहार से पृथक् पुरुष मूर्ख होता है। हाँ, यह बात अवश्य है कि भारतीय शिक्षा-शास्त्री लोकव्यवहार को नितान्त सत्य नहीं मानते। एक सीमा तक ही इसकी सत्ता है। आध्यात्मिकता की कीमत चुका कर लौकिकता उन्हें ग्रह्या नहीं। इस लौकिक जगत् के मल्यांकन का मानदण्ड उन्होंने आध्यात्मिक उन्नयन को ही माना है। अत: भारतीय शिक्षा-शास्त्री यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाकर भी यथार्थवाद की भूमि से बहुत ऊपर उठ जाता है।

प्रयोजनवाद, आदर्शवाद एवं प्रकृतिवाद के बीच की कड़ी है। जो व्यक्ति प्रकृतिवादी है वह प्रयोजनवादी अथवा आदर्शवादी नहीं हो सकता। किन्तु जो व्यक्ति यथार्थवाद तक के मार्ग पर चलता है उसे बीच ने प्रयोजनवाद को कहीं न कहीं पार करना पड़ता है। प्रकृतिवाद से आदर्शवाद तक की दूरी तय करने में प्रयोजनवाद मार्ग में आता ही है। इस दृष्टि से सभी भारतीय शिक्षा-शास्त्री किसी न किसी रूप में प्रयोजनवादी कहे जा सकते हैं। महात्मा गांधी में तो अपने सम्पूर्ण तत्त्व हैं। अपनी पुस्तक `महात्मा गांधी का शिक्षा-दर्शन' में डा एम एस पटेल ने जो विचार गांधी के विषय में व्यक्त किये हैं वे अन्य भारतीय शिक्षा-शास्त्रियों के विषय में भी पर्याप्त मात्रा में लागू होते हैं। डा। पटेल पहले लिखते हैं। "गांधी जी के दर्शन का सावधानी के साथ अध्ययन करे पर यह स्पष्ट हो जायगा कि उनके शिक्षादर्शन में प्रकृतिवाद, आदर्शवाद एवं प्रयोजनवाद सहायक हैं -- गांधी जी का शिक्षा-दर्शन पर्याप्त मात्रा में प्रकृतिवादी है। जब यह बालक की प्रकृति का पूर्ण विवरण प्रस्तुत करता है और इसके अध्ययन पर बल देता है। गांधी जी का शिक्षा-दर्शन अपने स्थापन में प्रकृतिवादी, अपने उद्देश्य में आदर्शवादी और कार्य की योजना तथा पद्धति में प्रयोजनवादी है-- एक शिक्षा दार्शनिक के रूप में गांधी जी की महत्ता इस तथ्य में है कि उनके दर्शन में प्रकृतिवादी, आदर्शवादी एवं प्रयोजनवादी प्रवृत्तियाँ पृथक् एवं स्वतन्त्र न होकर एक हो गयी हैं और उनका विकास एक शिक्षा-सिद्धान्त के रूप में हुआ है जो आज की आवश्यकताओं के अनुकूल होगा तथा मनुष्य की आत्मा की पवित्रतम आकांक्षाओं को सन्तुष्ट करेगा।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ