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}} दक्षिणा, गुरु को सम्मानस्वरूप दी जानेवाली भेंट अथवा यज्ञ, श्राद्ध और धार्मिक कृत्यों के संबंध में दिए जानेवाले धन का बोधक है।
परिचय
भारतवर्ष के गुरुकुलों में विद्यार्थी जब पढ़ने जाते थे तो वे या तो गुरु और उसके परिवार की सेवा करके अथवा यदि संपन्न परिवार के हुए तो कुछ शुल्क देकर विद्या प्राप्त करते, किंतु प्राय: शुल्क देनेवाले कम ही व्यक्ति होते थे और अधिकांश सेवासुश्रूषा से ही विद्या प्राप्त कर लेते थे। प्राय: ऐसे विद्यार्थी अपनी शिक्षा समाप्त कर जब घरचलने लगते तब गुरु को सम्मान और श्रद्धास्वरूप कुछ भेंट अर्पित करते जो दक्षिणा कहलाती थी। धीरे धीरे गुरुदक्षिणा की रीति सी बन गई और अत्यंत गरीब विद्यार्थी भी कुछ न कुछ दक्षिणा अवश्य देने का यत्न करने लगे। यह दक्षिणा विधान में आवश्यक रूप से देय मानी गई हो, ऐसा नहीं, किंतु श्रद्धालु विद्यार्थी स्वेच्छया उसको दें, यह क्रम हो गया और आज भी प्राचीन परिपाटी से पढ़नेवाले विद्यार्थी गुरुपूर्णिमा (आषाढ़ मास की) के दिन अपने गुरुओं की द्रव्य, फल मूल, पुष्प और मिष्ठान्न दक्षिणा सहित पूजा करते हैं।
दक्षिणा के पीछे भाव था उस गुरुपरिवार के भरण पोषण और आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति का उत्तरदायित्व जो विद्यादान के लिये न तो कोई आवश्यक और निश्चित फीस लगाता और न राज्य अथवा समाज से उसके लिये कोई निश्श्चित वेतन पाता। इस उत्तरदायित्व का वहन प्रजा के प्रति कर्तव्यनिष्ठ राजाओं के लिये आवश्यक माना जाता। कालिदास ने कौत्स की अपने गुरु वरतंतु को दक्षिणा देने के संबंध की जो कथा दी है (रघुवंश, पण्चम्, 20-30) उससे दक्षिणा के पीछे की सारी मान्यताओं का स्पष्ट बोध हो जाता है। यदि गरीब शिष्य गुरु की दक्षिणा स्वयं न दे सके तो राजा से उसे पाने का उसको अधिकार था और वह किसी भी दशा में विमुख नहीं किया जा सकता था।
दूसरी दक्षिणा है धार्मिक कृत्यों के संबंध की। यज्ञ बिना दक्षिणा के पूर्ण नहीं होता और उसका कोई फल नहीं होता, यज्ञ पूर्ण होने के बाद ब्राह्मण और पुरोहित को तुरंत दक्षिणा दी जाय और उसे किसी भी अवस्था में बाकी न लगाया जाय। बाकी लगने पर वह समय के अनुपात से बढ़ती जाती है। दक्षिणा न देनेवाला ब्रह्मस्वापहारी, अशुचि, दरिद्र, पातकी, व्याधियुक्त तथा अन्य अनेक कष्टों से ग्रस्त हो जाता है, उसकी लक्ष्मी चली जाती है, पितर उसका पिंड नहीं स्वीकार करते और उसकी कई पीढ़ियों, आगे तथा पीछे उसके परिवारिकों को अधोगति मिलती है (ब्रह्मवै., प्रकृति. 42 वाँ अध्याय) आदि विधानों और भयों की उत्पत्ति के पीछे एक प्रधान कारण था। यज्ञों और अन्य धार्मिक कृत्यों को करानेवाला जो ब्राह्मणों और पुरोहितों का वर्ग था उसके जीविकोपार्जन का साधन धीरे धीरे दक्षिणाएँ ही बच रहीं और वे उनका शुल्क तथा वृत्ति बन गईं, जिन्हें कोई बाकी नहीं लगा सकता था। दक्षिणा यज्ञ की पत्नी है अतः किसी भी अनुष्ठान के बाद दक्षिणा देने का विधान है,कुछ लोग दक्षिणा और दान में अन्तर नहीं समझते और वे कहते हैं कि दक्षिणा जो भी दी जाए उसे स्वीकार कर लेना चाहिए जबकि ये बात दान के विषय में सार्थक है। दान व्यक्ति जो अपनी श्रद्धा अनुसार करे उसे स्वीकार करना चाहिए परंतु दक्षिणा किसी श्रेष्ठ (गुरु, विद्वान, आचार्य, अथवा ज्योतिषी) व्यक्ति के किए गए कर्म का पारिश्रमिक होता है जो उसके कृत्य के अनुसार ही देना चाहिए जिससे वह संतुष्ट हो। साधारण शब्दों में दक्षिणा धन्यवाद स्वरूप दिया जाता है। यज्ञ की दक्षिणा न चुकानेवाले राजा हरिश्चंद्र को विश्वामित्र ने जो पहले उनके पुरोहित रह चुके थे, किस प्रकार दंडित किया, यह कथा पुराणों में मिलती है (मार्कं., अध्याय 7-8; हिस्ट्री ऑव कोशल, विशुद्धानंद पाठक, पृष्ठ 137-8)। ये दक्षिणाएँ आज भी भारतीय जीवन में धार्मिक कृत्यों, यज्ञों और पूजाओं, श्राद्धों और सांस्कारिक अवसरों के प्रधान अंग है। दक्षिणा स्वर्ण, रजत, सिक्कों, अन्न, वस्त्र आदि अनेक रूपों में दी जाती है और यजमान की श्रद्धा तथा वित्तीय स्थिति के अनुसार घटती बढ़ती भी रहती है। वृत्ति होते हुए भी उसका मान कभी निश्चित किया गया हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
दक्षिणा के संबंध में धार्मिक भाव उत्पन्न करने के सिलसिले में ही दक्षिणा को यज्ञ पुरुष की स्त्री के रूप की देवकथा का विकास हुआ (ब्रह्मवै., प्रकृति., 42 वाँ अध्याय) और उसे भी एक देवी माना गया।