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साहित्यिक समालोचना

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साँचा:स्रोतहीन साहित्य के पाठ अध्ययन, विश्लेषण, मूल्यांकन एवं अर्थ निगमन की प्रक्रिया साहित्यिक समालोचना (Literary criticism) कहलाती है। समालोचना का कार्य कृति के गुण दोष विवेचन के साथ उसका मूल्य अंकित करना है।

हिन्दी आलोचना

हिन्दी की विभिन्न विधाओं की तरह आलोचना का विकास भी प्रमुख रूप से आधुनिक काल की देन है। आधुनिक काल से पहले आलोचना का स्वरुप प्रमुखतया संस्कृत काव्यशास्त्र की पुनरावृति हुआ करती थी। लेकिन आज जो हिन्दी आलोचना का स्वरुप है उसका आरम्भ आधुनिक हिन्दी साहित्य के साथ साथ हुआ है।

आधुनिक गद्य साहित्य के साथ ही हिन्दी आलोचना का उदय भी भारतेन्दु युग में हुआ | विश्वनाथ त्रिपाठी ने संकेत किया है कि “हिंदी आलोचना पाश्चात्य की नकल पर नहीं, बल्कि अपने साहित्य को समझने-बूझने और उसकी उपादेयता पर विचार करने की आवश्यता के कारण जन्मी और विकसित हुई।” हिन्दी आलोचना भी संस्कृत काव्यशास्त्र की आधार-भूमि से जुड़कर भी स्वाभाविक रूप से रीतिवाद, साम्राज्यवाद, सामन्तवाद, कलावाद और अभिजात्यवाद विरोधी और स्वच्छन्दताकामी रही है। रचना और आलोचना की समानधर्मिता को डॉ राम विलास शर्मा के इस मन्तव्य से समझा जा सकता है कि जो काम निराला ने काव्य में और प्रेमचन्द ने उपन्यासों के माध्यम से किया वही काम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आलोचना के माध्यम से किया।

मुक्तीबोध के प्रमुख समालोचक

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को ही इस विधा का जनक माना जाता है। उन्होंने 'नाटक' नामक एक दीर्घ निबन्ध लिख कर इसकी शुरुआत की। हिन्दी साहित्य के प्रमुख आलोचक निम्नलिखित हैं –

इसके आलावा हिन्दी साहित्य में और भी कई आलोचक हुए हैं जिनमें सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय, डॉ. फ़तेह सिंह, प्रेमघन, गंगा प्रसाद अग्निहोत्री, अम्बिकादत्त व्यास, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. कृष्णलाल, डॉ. केसरी नारायण शुक्ल , जयशंकर प्रसाद, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, डॉ. विनय मोहन शर्मा , डॉ. हरवंशलाल शर्मा, इलाचन्द्र जोशी, शिवदान सिंह चौहान, अमृतराय, डॉ. विजयेन्द्र स्नातक, डॉ. विजयपाल सिंह, डॉ. सत्येन्द्र, डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय आदि का नाम लिया जा सकता है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ