करण (तर्कशास्त्र)

भारतपीडिया से
imported>अनुनाद सिंह द्वारा परिवर्तित २०:४४, ८ सितम्बर २०१६ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

अनेक कारणों में जो असाधारण और व्यापारवान्‌ कारण होता है उसे करण कहते हैं। इसी को प्रकृष्ट कारण भी कहते हैं। असाधारण का अर्थ कार्य की उत्पत्ति में साक्षात्‌ सहायक होना। दंड, जिससे चाक चलता है, घड़े उत्पत्ति में व्यापारवान्‌ होकर साक्षात सहायक है, परंतु जंगल की लकड़ी करण नहीं है क्योंकि न तो वह व्यापारवान्‌ है और न साक्षात्‌ सहायक। नव्य न्याय में तो व्यापारवान्‌ वस्तु को करण नहीं कहते। उनके अनुसार वह पदार्थ जिसके बिना कार्य ही न उत्पन्न हो (अन्य सभी कारणों के रहते हुए भी) करण कहलाता है। यह करण न तो उपादान है और न निमित्त वस्तु, अपितु निमित्तगत क्रिया ही असाधारण और प्रकृष्ट कारण है। प्रत्यक्ष ज्ञान में इंद्रिय और अर्थ का सन्निकर्ष (संबंध) करण है अथवा इंद्रियगत वह व्यापार जिससे अर्थ का सन्निकर्ष होता है, नव्य मत में करण कहलाता है।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ ग्रंथ

  • अन्नंभट्ट : तर्कसंग्रह और दीपिका;
  • केशव मिश्र : तर्कभाषा