ईथर माध्यम की परिकल्पना

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19 वीं शताब्दि में, प्रकाशवाही ईथर सिद्धांत के अनुसार, ब्रह्माण्ड में एक ईथर माध्यम की परिकल्पना (साँचा:Lang-en) की गई। इसके अनुसार प्रकाश तरंगे ईथर माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान पर संचरित होती हैं।

परिचय

ध्वनि तरंगो के अध्ययन से पता चला कि ये तरंगे अनुप्रस्थ होती हैं और इन्हें एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाने के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है और इनका संचरण ठोस में सबसे सुगम होता है। इसी आधार पर जब विद्युत चुम्बकीय तरंगो की खोज के पश्चात वैज्ञानिकों ने देखा कि ये तरंगे अनुदर्ध्य होती हैं और प्रकाश तरंगो के समान होती हैं। वैज्ञानिकों ने यह परिकल्पना की कि इन तरंगो को भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है लेकिन सूर्य व तारों से आने वाली प्रकाश तरंगे पृथ्वी पर कैसे पहूँचती है क्यों कि इनके मध्य तो निर्वात है। इस धारणा को समझने के लिए ई॰ सन् १८१८ में ऑगस्टन-जीन फ्रेस्नल (Augustin-Jean Fresnel) ने सर्वप्रथम ईथर सिद्धांत दिया। इससे पहले १६७८ में जर्मन विद्वान क्रिस्टियन हुगेन्स ने ईथर जैसे किसी प्रकाश वाहक के होने की परिकल्पना दी थी। वैज्ञानिकों का मत था कि ईथर एक ऐसा माध्यम है जो सर्वव्यापी है और प्रकाश तरंगे इसी माध्यम में गति करती हैं। अतः यह माध्यम प्रकाश तरंगो के लिए माध्यम माना गया। ईथर को द्रव्यमान रहित माना गया।

आंशिक ईथर को घसीटना

सन् १८१० में फ्रान्सिस आरगो (François Arago) ने बताया कि आण्विक सिद्धांत द्वारा पूर्वानुमानित किसी पदार्थ के अपवर्तनांक में परिवर्तन प्रकाश के वेग के मापन में एक महत्वपूर्ण विधि उपलब्द्ध करवा सकता है। ऐसे पूर्वानुमानों का मुख्य कारण अपवर्तनांक में आने वाले परिवर्तन जैसे काँच का अपवर्तनांक प्रकाश के काँच में वेग व वायु में प्रकाश के वेग के अनुपात पर निर्भर करता है।

आंशिक ईथर को घसीटने में समस्याएं

घसीटने का फ्रेनल गुणक, फिज़ाऊ प्रयोग (Fizeau experiment) और इसकी पुनर्रावर्तियों से पुष्टि की जा रही थी। इस गुणक की सहायता से सभी ईथर अपवाह प्रयोगों (जैसे - आरगो, फिजाऊ, होईक मसकर्ट इत्यादि) जो प्रथम कोटि तक के प्रभावों का मापन करने में सक्षम थे से आ रहे ऋणात्मक परिणामों की व्याख्या की जा सकती है। स्थायी (लगभग) ईथर की परिकल्पना भी तारकीय विपथन के लिए तर्कयुक्त है। तथापि इस सिद्धांत का खण्डन निम्न कारणों से हुआ :[१] [२] [३]

  • यह १९वीं शताब्दी से ही ज्ञात था, कि आंशिक ईथर को घसीटने के लिए ईथर का आपेक्षिक वेग होना चाहिए और यह अलग वर्णों (रंगो) के लिए अलग-अलग होना चाहिए - निस्संदेह यह स्थिति नहीं है।
  • फ्रेनल का (लगभग) स्थिर ईथर का सिद्धांत के परिणाम उन प्रयोगों में सही साबित हो रहे थे जो द्वितीय कोटि तक के प्रभाव संसूचित करने के लिए पर्याप्त संवेदी थे। तथापि, वे प्रयोग जैसे माइकलसन मोर्ले प्रयोगट्रोउटन-नोबल प्रयोग ने ऋणात्मक परिणाम दिये और इसलिए फ्रेनल ईथर का सीधा खण्डन हुआ।

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ