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}} देवर्षि रमानाथ शास्त्री (1878 – 1943) संस्कृत भाषा के कवि तथा श्रीमद्वल्लभाचार्य द्वारा प्रणीत पुष्टिमार्ग एवं शुद्धाद्वैत दर्शन के विद्वान् थे। उन्होने हिन्दी, ब्रजभाषा तथा संस्कृत में प्रचुर लेखन किया है। वे बाल्यावस्था से ही संस्कृत में कविता करने लग गए थे और उसी दौरान प्रसिद्ध मासिक पत्र ‘संस्कृत रत्नाकर’ में उनकी प्रारंभिक कविता ‘दुःखिनीबाला’ छपी थी। उनका जन्म आन्ध्र से जयपुर आये कृष्णयजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा अध्येता वेल्लनाडु ब्राह्मण विद्वानों के देवर्षि परिवार की विद्वत् परम्परा में सन् 1878 (विक्रम संवत् 1936, श्रावण शुक्ल पंचमी) को जयपुर में हुआ। उनके पिता का नाम श्री द्वारकानाथ तथा माता का नाम श्रीमती जानकी देवी था। इनके एकमात्र पुत्र पंडित ब्रजनाथ शास्त्री (1901-1954) थे, जो स्वयं शुद्धाद्वैत के मर्मज्ञ थे। वे संस्कृत के उद्भट विद्वान् व युगपुरुष कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के अग्रज थे।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
शास्त्रीजी की प्रारंभिक शिक्षा जयपुर के महाराजा संस्कृत कॉलेज में हुई और 1896 में 18 वर्ष की आयु में वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाराणसी चले गए। उन्होने 1903 में मुम्बई को अपना कार्यक्षेत्र चुना। कालबादेवी रोड पर उन दिनों नारायण मूलजी की पुस्तकों की दुकान हुआ करती थी जहाँ सायंकाल को विद्वान लोग शास्त्रीय चर्चा के लिए इकट्ठे होते थे। कई बार विद्वानों में शास्त्रार्थ भी हो जाता था। ऐसे ही एक शास्त्रार्थ के दौरान उनकी भेंट वहाँ के एक सम्माननीय व्यक्ति सेठ चत्तामुरारजी से हो गई जो उनकी विद्वत्ता और शास्त्रार्थ में उनकी पाण्डित्यपूर्ण वाग्मिता से अत्यंत प्रभावित हुए। उनके आग्रह पर शास्त्रीजी अनन्तवाड़ी में रहने लगे जहाँ वे श्रीमद्भागवत का अनुष्ठान करते। कुछ समय के बाद उन्हें श्रीगोकुलाधीश मन्दिर में व्यासगद्दी मिल गयी। मन्दिर के गोस्वामी गोवर्धनलालजी महाराज की अनुशंसा से वे हनुमान गली में स्थित तत्कालीन वसनजी मनजी संस्कृत विद्यालय में प्रधानाध्यापक हो गये।
पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय को योगदान
मुंबई प्रवास के दौरान उनका परिचय भूलेश्वर स्थित मोटा मन्दिर के गोस्वामी श्री गोकुलनाथ जी महाराज से हो गया जो शीघ्र ही मित्रवत् घनिष्ठता में बदल गया। उनके प्रयत्नों से पुष्टिमार्गीय वैष्णव सम्प्रदाय में एक आन्दोलन की तरह नई चेतना जागृत हुई। वे मोटा मन्दिर के श्रीबालकृष्ण पुस्तकालय के मैनेजर तथा पाठशाला के प्रधान पण्डित हो गये। गोस्वामीजी के अनुरोध पर उन्होने सम्प्रदाय में ‘शास्त्री’ पद भी स्वीकार किया। वे मुम्बई में सन् 1930 तक रहे। इस प्रवास के दौरान वे न केवल पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के मर्मज्ञ व अद्वितीय विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित हुए, वरन् उन्होने शुद्धाद्वैत दर्शन का विवेचन और पुष्टिमार्ग के अनुपम रहस्यों तथा सिद्धांत की व्याख्या करते हुए अनेक वैदुष्यपूर्ण ग्रन्थ भी लिखे। वे कई वर्षों तक मुंबई की तत्कालीन विद्वत्परिषद, ब्रह्मवाद परिषद तथा सनातन धर्म सभा के मानद मंत्री रहे। यहाँ उन्होने ‘स्वधर्म विवर्धिनी सभा’ की स्थापना की जिसके अंतर्गत प्रत्येक एकादशी को एक व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाता था। उनके व्याख्यानों और प्रवचनों को इतना अधिक सराहा गया कि मुम्बई के माधवबाग में एक अन्य संस्था ‘आर्य स्वधर्मोदय सभा’ में भी उनके व्याख्यान और गीता पर प्रवचन होने लगे, जिन्हें सुनने विद्वज्जनों, धर्म-संस्कृति प्रेमियों व रसिक भक्तों के अतिरिक्त देवकरण नानजी, कृष्णदास नाथा, मथुरादास गोकुलदास, पं. हनुमान प्रसाद पोद्दार जैसे सम्मानित व्यक्ति भी आते थे। यहीं कई बार महात्मा गाँधी, चितरंजनदास, राजगोपालाचारी जैसे राष्ट्रीय नेताओं से उनका संपर्क एवं संवाद होता था। वे पटना की चतुःसम्प्रदाय वैष्णव महासभा, वर्णाश्रम स्वराज्यसंघ, तथा सनातन धर्मसभाओं में भी अपनी वैदुष्यपूर्ण वक्तृत्व से सभी विद्वानों के आदर पात्र थे, जिसके कारण काशी में होनेवाली अखिल भारतीय ब्राह्मण महासम्मलेन में उन्हें सभा का नियामक बनाया गया।
मुम्बई से देवर्षि रमानाथ शास्त्री सन् 1930 में महाराणा मेवाड़ तथा नाथद्वारा के तत्कालीन तिलकायित गोस्वामी गोवर्धनलाल जी के निमंत्रण पर नाथद्वारा आये, जहाँ वे मृत्युपर्यन्त 1943 तक सुप्रसिद्ध विद्याविभाग के अध्यक्ष रहे। उन्होंने सन् 1936 में अन्य सहयोगियों के साथ मिल कर नाथद्वारा में ‘साहित्य मण्डल’ नामक संस्था की स्थापना की और इस सम्बन्ध में वे काफ़ी समय तक पं. मदनमोहन मालवीय के सम्पर्क में भी रहे। अपने जीवन के सन्ध्याकाल में वे श्रीनाथजी के दर्शनों का लाभ लेते थे और उनके विभिन्न श्रृंगारों पर संस्कृत में अत्यंत हृदयस्पर्शी व भावपूर्ण साहित्यिक श्लोक लिखते थे। उनके निधन के पश्चात् उनके पुत्र देवर्षि ब्रजनाथ शास्त्री विद्याविभागाध्यक्ष (1943-1950) बने।
सम्मान
देवर्षि रमानाथ शास्त्री श्रीमद्भागवत के अद्भुत विद्वान् तथा कथावाचक थे जिन्हें लगभग 20 बार श्रीमद्भागवत के 108 पारायणों में मुख्यासन पर आसीन करके सम्मानित किया गया। प्रसिद्ध मासिकपत्र ‘कल्याण’ के संपादक स्व. हनुमान प्रसाद पोद्दार (गीताप्रेस गोरखपुर) ने श्रीमद्भागवत के प्रकाशन में उनकी विद्वत्ता को स्मरण करते हुए उनका सादर उल्लेख किया है। मुंबई में राजा बलदेवदास बिड़ला ने भी उन्हें मुख्य व्यास मान कर सम्मानित किया था। पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय के तलस्पर्शी विद्वानों में उनका नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है।
विविध विधाओं में निपुणता
प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले देवर्षि रमानाथ शास्त्री असाधारण प्रतिभा के धनी थे, जिन्होंने कई क्षेत्रों में महारत हासिल की। मुम्बई के जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स के सौजन्य से उन्होने तैल तथा जल रंगों से चित्रकला में अद्भुत निपुणता प्राप्त की तथा ‘लन्दन स्कूल ऑफ़ पेन्टिंग’ की शैली में अनेक तैलचित्रों की रचना की। उनके कई अविस्मरणीय तैलचित्र आज भी अनेक दीर्घाओं तथा बैठकों की शोभा बढ़ा रहे हैं। उनके द्वारा बनाये गए चित्रों – “शेरों का स्वराज्य”, शार्दूल विक्रम”, “राधा माधव” जैसे कई चित्रों ने बहुत प्रसिद्धि पायी, जिन्हें ‘नॉट फ़ॉर कम्पीटिशन’ का बोर्ड लगा कर प्रदर्शित किया जाता था। वे संगीत, फ़ोटोग्राफी तथा क्रिकेट का भी शौक रखते थे और शतरंज के माहिर खिलाड़ी थे। मुंबई के प्रसिद्ध हिन्दू जिमखाना क्लब के सदस्य की हैसियत से वे यूरोपियाई शतरंज खिलाड़ियों के साथ स्पर्धा भी करते थे और अक्सर विजयी रहते थे।
प्रमुख कृतियाँ
- शुद्धाद्वैत दर्शन (द्वितीय भाग), प्रकाशक - बड़ा मन्दिर, भोईवाड़ा, मुंबई, 1917
- रासलीला-विरोध परिहार, प्रकाशक - विद्याविभाग, नाथद्वारा, 1932
- ब्रह्मसम्बन्ध अथवा पुष्टिमार्गीय दीक्षा, प्रकाशक - सनातन भक्तिमार्गीय साहित्य सेवा सदन, मथुरा, सन् 1932
- श्रीकृष्णावतार किं वा परब्रह्म का आविर्भाव, प्रकाशक - शुद्धाद्वैत पुष्टिमार्गीय सिद्धान्त कार्यालय, नाथद्वारा, 1935
- भक्ति और प्रपत्ति का स्वरूपगत भेद, प्रकाशक - शुद्धाद्वैत सिद्धान्त कार्यालय, नाथद्वारा, 1935
- श्रीकृष्णाश्रय, प्रकाशक - पुष्टिसिद्धान्त भवन, परिक्रमा, नाथद्वारा, 1938
- ईश्वर दर्शन, प्रकाशक - विद्याविभाग, नाथद्वारा, 1939
- पुष्टिमार्गीय स्वरूपसेवा, प्रकाशक - विद्याविभाग, नाथद्वारा, 1943
- श्रीकृष्णकी लीलाओं पर शास्त्रीय प्रकाश (प्रथम भाग), विद्याविभाग, नाथद्वारा, 1944
- ब्रह्मवाद, प्रकाशक - पुष्टिमार्गीय कार्यालय, नाथद्वारा, 1945
- पुष्टिमार्गीय नित्यसेवा स्मरण, प्रकाशक - श्रीवल्लभाचार्य जनकल्याण प्रन्यास, मथुरा, 1989
- अनुग्रह मार्ग (सुबोधिनीजी के अनुसार), प्रकाशक - श्रीवल्लभाचार्य जनकल्याण प्रन्यास, मथुरा, 1994
- शुद्धाद्वैत दर्शन (तीन भाग), प्रकाशक - विद्या विभाग, नाथद्वारा, नया संस्करण, 2000
उक्त ग्रंथों के अतिरिक्त उनके द्वारा लिखे अन्य प्रमुख ग्रंथों में निम्नलिखित ग्रन्थ भी हैं, जिनमें से कुछ अप्रकाशित अथवा पाण्डुलिपि रूप में हैं -
- “सिद्धांतरहस्यविवृत्ति”
- “शुद्धाद्वैत सिद्धान्तसार” (हिन्दी – गुजराती)
- “त्रिसूत्री”
- “गीता के सिद्धान्तों पर शांकर एवं वाल्लभ मत की तुलना”
- “षोडशग्रन्थ टीका”
- “स्तुतिपारिजातम्” (संस्कृत में)
- “दर्शनादर्शः” (संस्कृत में)
- “गीतातात्पर्य”
- “श्रीमद्वल्लभाचार्य”
- “भगवानक्षरब्रह्म”
- “श्रीमद्भगवतगीता (हिन्दी अनुवाद)”
- “राधाकृष्णतत्व”
- “सुबोधिनीजी का हिन्दी विशद अनुवाद”
- “छान्दोग्योपनिषद् भाष्यं" (संस्कृत में)
उन्होने सन् 1942 में “गीता की समालोचना” नामक ग्रन्थ लिखना प्रारम्भ किया जो उनके देहावसान के केवल एक सप्ताह पहले ही 1943 में पूरा हुआ।
निधन
देवर्षि रमानाथ शास्त्री का देहावसान नाथद्वारा में सन् 1943 में 65 वर्ष की आयु में हुआ।
सन्दर्भ-स्रोत
- व्रजनाथ शास्त्री द्वारा देवर्षि रमानाथ शास्त्री का विस्तृत परिचय, ‘श्रीकृष्णलीलाओं पर शास्त्रीय प्रकाश’ में, प्रकाशक- विद्याविभाग, नाथद्वारा, 1944
- डॉ॰ सुषमा शर्मा – “देवर्षि पं॰ रमानाथ जी शास्त्री”, साहित्यमण्डल नाथद्वारा हीरक जयन्ती ग्रन्थ (1937-1997), प्रधान संपादक भगवती प्रसाद देवपुरा, साहित्य मण्डल, नाथद्वारा, 1997
- “शुद्धाद्वैत दर्शन (द्वितीय भाग)”, प्रकाशक - बड़ा मन्दिर, भोईवाड़ा, मुंबई, 1917
- “ब्रह्मसम्बन्ध अथवा पुष्टिमार्गीय दीक्षा”, प्रकाशक - सनातन भक्तिमार्गीय साहित्य सेवा सदन, मथुरा, सन् 1932
- साँचा:Cite book
- हनुमान प्रसाद पोद्दार - ‘द्वितीय संस्करण का नम्र निवेदन’, श्रीमद्भागवत-महापुराण, प्रथम खण्ड, गीताप्रेस, गोरखपुर, ISBN 81-293-0003-6
- साँचा:Cite book