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साँचा:हहेच लेख आपसी सहायता के अन्तर्गत वह व्यवहार आते हैं जो एक दूसरे के जीने में योगदान देते हैं।[१][२] परन्तु ऐसे व्यवहार जो दूसरों के जीने में सहायक हैं, और प्राणी के अपने जीने की क्षमता कम करते हैं, डार्विन के उद्विकास के सिद्धांत को चुनौती देने वाले माने गए।[३] विल्सन और विल्सन के अनुसार, वैज्ञानिक पिछले ५० वर्षों से खोज रहे हैं कि आपसी सहायता, जिसमें पर्यायवाद, सहयोग, सहोपकारिता, आदि भी आते हैं, का प्राणियों में कैसे विकास हुआ।[४]
जीव वैज्ञानिक विल्सन ने १९७५ में एक नयी शाखा समाजजीवविज्ञान शुरू की, जिसमें आपसी सहायता एक महत्वपूर्ण समस्या के रूप में उभरी।[५] किन्तु विल्सन ने भी आनुवंशिक इकाई या जीन की प्रकृति को स्वार्थी माना, और कहा की जीन अपनी अधिक से अधिक प्रतिलिपियाँ बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। सहायता देने वाले और लेने वाले को होने वाले लाभ या हानि को क्रमशः जीन में बढ़ोतरी या कमी से आँका गया। जिसके लिए अर्थशास्त्र से खेल सिद्धान्त को आयत किया गया।
मनोवैज्ञानिक फेल्ड्मान सहायता को मानव प्रकृति का उजला पक्ष बताते हैं। उन्होंने १९८० के दशक के लेटाने और अन्य लोगों के प्रयोगों का वर्णन करते हुए लिखा कि मदद देने वाला इस व्यवहार पर होने वाले लाभ और हानि का जाएज़ा लेकर ही इस कार्य में अग्रसर होता है।[६] फेल्ड्मान का मानना है कि हालाँकि परोपकार या पर्यायवाद भी सहायता का ही एक छोर है, किन्तु इसमें आत्मोत्सर्ग पर जोर है, जैसे, किसी व्यक्ति का एक आग से जलते घर में किसी अजनवी के बच्चे को बचाने के लिए कूदना। इस बारे में हाल्डेन का तर्क है कि किसी व्यक्ति को इस तरह का कार्य करना तभी लाभदायक रहेगा, यदि वह अपने सगे सम्बन्धी को बचा सके।[७] हाल्डेन का तर्क नीचे दिए गए आपसी सहायता के पांच वैकल्पिक रास्तों का प्राक्कथन है।
इस लेख में एक कोशिका प्राणी अमीबा के भुखमरी में बहुकोशिका समूह में परिवर्तन से लेकर मनुष्य में पराप्राकृतिक विश्वास से जुड़ने वाले विशाल जन समूह तक, आपसी सहायता के कुछ प्रारूप हैं, जिन्हें प्राकृतिक तथा सांस्कृतिक चयन के वैकल्पिक रास्तों से समझने का प्रयास हो रहा है।
प्रतिस्पर्धा और सहयोग
डार्विन ने अपनी पुस्तक में सहोपकार के कई उदहारण देकर, जैसे कीट वर्ग और फूलों का आपसी सम्बन्ध, लिखा कि यह दो प्रजातियों में, अलग-अलग, आपसी संघर्ष का परिणाम है।[८] उन्होंने ने अलंकारिक भाषा में कहा कि, आदमी कृत्रिम चयन से पालतू पशुओं में आपने फायदे के गुण चुनता है, किन्तु प्रकृति चयन द्वारा प्राणी में वह गुण चुनती है जो उस प्राणी के जीने में सहायक हों। यदि प्राणी के व्यवहार से दूसरे के जीने में मदद मिलती है, उसका चयन तभी होगा जब प्राणी के समूह को लाभ हो, जैसे सामाजिक कीट मधुमक्खी, दीमक, आदि। क्रोपोत्किन कहते हैं, डार्विन ने इन विचारों का विस्तार नहीं किया, और जीने के लिए परस्पर सहयोग के बजाए, प्रतिस्पर्धा को अपने सिद्धांत में मुख्य जगह दी। लगभग सौ साल बाद, वैज्ञानिक कह रहे हैं कि परस्पर सहायता या सहयोग जीवन का आधार है।[३][९]
आपसी सहायता का सबसे अधिक विस्तार मनुष्य में हुआ है, और सहज व्यवहार के साथ-साथ इसमें सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, और अन्य पहलू भी जुड़ते गए। इस सन्दर्भ में भगवान दास ने संवेग पर अपनी पुस्तक में आपसी सहायता का विशेष उल्लेख किया।[१०] उन्होंने तीन प्रकार के सामाजिक आदान-प्रदान की कल्पना कर आपसी सहायता की विवेचना की। इस प्रकार के सम्बंधों में एक दाता है तो दूसरा प्रापक, जिसे किसी वस्तु या सेवा की ज़रुरत होती है। किसी अन्य वस्तु की प्रापक में बहुतायत है, तो वह दाता को देगा, और इस वस्तु की दृष्टि से दाता कहलायेगा। यह आपसी सहायता का सबसे सामान्य सम्बन्ध है। ऐसा भी सम्भव है कि कोई व्यक्ति ऊंचे पद पर है और उसके पास एक वस्तु बहुतायत में है, फिर भी एक नीचे स्तर का व्यक्ति उसे खुश करने के लिए उसे वह वस्तु देगा। तीसरी प्रकार के सम्बन्ध में एक ऊंची श्रेणी का व्यक्ति, जिसके पास कोई वस्तु बहुतायत में है, उसका थोड़ा सा हिस्सा स्वेच्छा से निम्न श्रेणी के व्यक्ति को देता है, जिसे उसकी ज़रुरत है। भगवान दास ने इस तीसरी प्रकार के सम्बन्ध को विशेष माना, जिसकी व्याख्या कठिन है। समाज में इसे परोपकार कहते हैं, भगवान दास कहते हैं, जब कि इस व्यवहार से परोपकारी को मानसिक लाभ मिलता है।
क्रोपोत्किन ने कहा की आपसी सहायता जंतुओं के उद्विकास में एक महत्वपूर्ण कारक है।[१] इससे जुड़े तथ्य, जंतुओं और मनुष्यों पर किये गए निरीक्षण, उन्होंने १९०२ में अपनी पुस्तक में रखे। इस पुस्तक के प्राक्कथन में आशले मौन्टागू ने लिखा है कि, वास्तव में क्रोपोत्किन ने प्राकृतिक चयन (स्वार्थ) के पूरक पक्ष (सहयोग) को ज़ोरदार शब्दों में रखा, जिसे डार्विन के अनुयायों ने दबा दिया था। मौन्टागू आगे कहते हैं कि एक सच्चे अराजक के नाते उन्होंने प्राकृतिक दर्शन को ध्यान में रखकर समता और आपसी सहायता को आधार माना। प्राकृतिक प्रतिभा से ओत-प्रोत गोथे से भी, क्रोपोत्किन ने लिखा, जंतुओं में आपसी मदद की गहनता छिपी नहीं थी।
आधुनिक उद्विकास के विशेषज्ञ, ब्राएन गुडविन ने गोथे की जीवन के बारे में गतिशील दृष्टि से आगे बढ़कर, कहा कि जीवन की उत्पत्ति ही कोशिकाओं के आपसी सहयोग से होती है, और यह क्रम विभिन्न रूपों में मनुष्य के सामाजिक संस्थानों में भी दिखाई देता है।[११] गुडविन कहते हैं कि जीव विज्ञान में प्रतिस्पर्धा, परोपकार, स्वार्थी जीन, सबसे सक्षम का जीना, आदि शब्द अलंकार या रूपक की तरह प्रयोग किया जाता है। एक ओर यह शब्द इन सिद्धान्तों के मतलब को आम लोगों तक आसानी से ले जाते हैं, दूसरी ओर समकालीन सांस्कृतिक सोच में प्रचलित स्वार्थ और प्रतिस्पर्धा वैज्ञानिक सिद्धान्तों का हिस्सा बनते हैं। गुडविन आगे लिखते हैं कि वास्तव में इन रूपकों का कोई आतंरिक मूल्य नहीं है। आखिर जीव विज्ञान ने प्रतिस्पर्धा को इतना अधिक महत्त्व क्यों दिया, गुडविन ने पूछा, सहयोग को क्यों नहीं उद्विकास का प्रेरक माना। आपसी सहायता के उदाहरण कोशिका से लेकर मनुष्य के जटिल व्यवहारों में है।[९]
- गुडविन ने जीवन को एक सहयोगी उद्यम कहा और निम्न तथ्यों को उजागर किया।[११]
- जीवित प्राणी ऐसे सहयोगी तंत्र हैं जो सतत विकसित होते रहते हैं, यह जटिलता में वृद्धि गतिशील किन्तु स्थिर और सही रास्ते से होती है।
- जीवन की उत्पत्ती के समय से, चाहे वह एक आरएनए का अणु क्यों न हो, अपनी प्रतिलिपी बनाने के लिए एक अनुकूल वातावरण चाहिए।
- प्रतिलिपी अपने आप को उस वातावरण में एक स्वतंत्र इकाई की तरह विकसित करे।
- वातावरण में होने वाले बदलाव का संज्ञान ले जिससे लगातार सूचना का आदान-प्रदान हो।
- इस जीवित इकाई के चारों ओर का वातावरण एक संस्कृति है, जो इस इकाई को बनाये रखती है तथा प्रेरित करती है।
- उपरोक्त प्रक्रियाएं प्राणियों का सहयोगी एवम् संज्ञानात्मक तंत्र बनाती है, जो एक प्रतिलिपि से व्यस्क प्राणी के विकास के लिए ज़रूरी है।
- सामाजिक प्राणियों में, अन्य प्राणी उसके चारों तरफ के वातावरण का हिस्सा होते हैं, जिनके साथ सहयोगी सम्बन्ध बनते हैं।
- आपसी क्रियाओं से प्रत्येक स्तर पर नए आकार और नयी व्यवस्था का श्रेणीबद्ध क्रम में उदगमन होता है।
- व्यक्तियों से सम्बन्ध बाहरी वातावरण में ही नहीं, प्राणी के अन्दर भी संज्ञानात्मक रूप में बनते हैं, जिससे जीवन को एक निश्चित मार्गदर्शन मिलता है।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है की आपसी सहायता के उद्विकास के बारे में वैज्ञानिकों की सोच में बदलाव आ रहा है। हर्दी कहती है की वानर और मानव में प्रतिस्पर्धा में इतना अन्तर नहीं जितना सहयोगी व्यवहार में है, अर्थात मनुष्य अत्याधिक सामाजिक प्राणी है।[१२] इसका एक कारण हर्दी के अनुसार बच्चे के पालन-पोषण में समूह के अन्य सदस्यों का योगदान है।
आपसी सहायता के पांच सिद्धान्त
जंतुओं और मनुष्यों में आपसी सहायता के अनेक प्रारूप हैं, जिनका वर्णन प्रकृतिवादी अक्सर करते हैं, परन्तु वैज्ञानिको ने आपसी सहायता को अधिक महत्त्व नहीं दिया।[१] क्लटन-ब्रौक ने बहुत से ऐसे व्यवहारों को सहोपकर की श्रेणी में रखा है, जैसे, नर शेरों का एक साथ अपनी सीमा की सुरक्षा के लिए दहाड़ना; अफ्रीका में जंगली कुत्तो का एक साथ मिलकर शिकार करना; पाईड बैबलर द्वारा मिलकर गृह क्षेत्र की रक्षा के लिए आवाज़ देना; मीरकैट द्वारा सामूहिक रूप से शिकारी को भागना; आदि।[२]
- जैविक सोच को लेकर आपसी सहायता के प्राणियों में उद्विकास के जो वकाल्पिक मार्ग सुझाये गए, नौवाक ने उन्हें पांच नियमों के रूप में प्रस्तुत किया—बंधु चयन; प्रत्यक्ष पारस्परिकता; अप्रत्यक्ष पारस्परिकता, तंत्र पारस्परिकता; तथा समूह चयन।[१३][३]
- बंधु चयनः यदि एक दूसरे की सहायता करने वाले आनुवंशिक रिश्ते से जुड़े हैं, तो सहयोग देने वाले को वास्तव में नुकसान नहीं होता, क्योंकि जिसकी भलाई हो रही है उसमें सहायता देने वाले की जीन हैं, जिन्हें लाभ होता है। जैसे दो भाई, माँ-बाप और बच्चे। हेमिल्टन के नियम के अनुसार “र*ल>ह” जिसमें ‘ल’ सहायता प्राप्त करने वाले को लाभ; ‘ह’ सहायता देने वाले को हानि; तथा, ‘र’ दोनों में आनुवंशिक रिश्ते का माप।
- प्रत्यक्ष पारस्परिकताः इसमें वह सहयोगी व्यवहार आते हैं जिनमें दो सहयोगी एक दूसरे को सीधा लाभ पहुंचाते हैं। जैसे, पहले एक बंदर ने दूसरे बंदर के बल संवारे, फिर दूसरे बंदर ने पहले के बल संवारे। यह गैर-बंधु चयन है, अर्थात यह ज़रूरी नहीं कि एल दूसरे की सहायता पहुँचाने वाले आपस में सगे सम्बन्धी हों। यदि सहयोग के बदले सहयोग न मिले तो यह सम्बन्ध टूट जाएगा।
- अप्रत्यक्ष पारस्परिकताः नौवाक का मानना है कि सहायता करने से व्यक्ति का यश बढ़ता है। अतः एक सदस्य अपने व्यवहार से या कुछ दान देकर, समूह के सदस्यों की मदद कर, अपना यश बढ़ाता है, जिसका उपयोग वह समूह में प्रभावशाली नेता बनने के लिए भी कर सकता है। इसमें सहायता करने वाले को सीधा लाभ नहीं होता, अपितु परोक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से होता है।
- तंत्र पारस्परिकताः एक समूह में कई तरह के सदस्य होते हैं, कुछ दूसरे की सहायता करते हैं, कुछ मुफ्त में लाभ उठाते हैं, तथा कुछ इसमें भाग नहीं लेते। कुछ सदस्य जो एक दूसरे की सहायता करते हैं, समूह के अन्दर एक अलग सामाजिक जाल या दल बनाते हैं, जिससे मुफ्त खोरों से बचाव होता है।
- समूह चयनः जंतु छोटे-छोटे समूहों में रहते हैं। जिस समूह में सदस्य एक दूसरे की सहायता करेंगे, वह दूसरे समूह जिसमें सदस्य स्वार्थी हैं, से ज्यादा फैलेगा। इसमें पूरा समूह चयन की इकाई है, जो दूसरे समूह के साथ प्रतिस्पर्द्धा में फैलता है या विलुप्त होता है। विल्सन और विल्सन ने समूह चयन, जिसे अब बहुस्तरीय चयन कहते हैं, की समीक्षा की है।[४] उन्होंने लिखा कि, विन-एडवर्ड द्वारा प्रतिपादित[१४] समूह चयन जंतुओं के पर्यावलोकन पर आधारित है, इसका प्रबल विरोध हुआ, किन्तु ४० वर्ष बाद यह सहयोगी व्यवहार के प्राकृतिक चयन की मुख्य इकाई बन गया।
अमीबा में सहयोग
आपसी सहायता के उद्विकास में सबसे बड़ी समस्या ऐसे सदस्यों की है, जो दूसरों से फायदा उठाते हैं, किन्तु दूसरों की सहायता नहीं करते, जो धोखेबाज़ या मुफ्तखोर कहलाते हैं।[१५]मुफ्तखोर समूह में इतनी तेज़ी से पनपते हैं की परोपकारी पीछे रह जाते हैं। और अंत में समूह विलीन हो जाता है, अतः परोपकारी व्यवहारों का विकास नहीं होता। एक कोशिका अमीबा, भुखमरी से बचने के लिए बहुकोशिका ढांचा, जिसमें कुछ प्राणी अजीवित स्तम्भ और अन्य उसके ऊपरी भाग में बीज वाला हिस्सा बनाते हैं।[९] सामाजिक अमीबा की कुछ किसमें ऐसी हैं जो स्तम्भ का हिस्सा नहीं बनती पर बीज बनाने वाले भाग का फायदा उठती हैं, इन्हें मुफ्तखोर कहते हैं, तथा अन्यों को सहयोगी।
खरे और उनके साथियों ने खोज में पाया कि सामाजिक अमीबा में एसी किमें विकसित हो जाती हैं जो मुफ्तखोरों को चिन्हित कर उनके प्रति प्रतिरोध क्षमता विकसित करती है, जिससे मुफ्तखोर अन्य अमिबों द्वारा किये जाने वाले आपसी सहायता के कार्यों में भाग नहीं ले पाते, अतः उनके लाभ से वंचित रह जाते हैं और भुखमारी जैसी स्थितयों का सामना नहीं कर पाते।[१५] अमीबा की कुछ जातियां आपसी सहायता के अध्ययन का एक अच्छा प्रारूप है, क्योंकि उनमें मुफ्तखोरों की रोक के उपाय आनुवंशिक प्रयोगों से संभव हैं।
सामाजिक कीट
विल्सन कहते हैं कि मेरुदंडधारी प्राणियों में मनुष्यों में सहयोग चरम सीमा पर है तो यही श्रेय कीटवर्ग में हाईमनोप्टेरा के अंतर्गत आने वाली मधुमक्खियों, चींटियों और दीमकों आदि की प्रजातियों को जाता है।[१६] इनके जटिल सामाजिक ढांचे को “वास्तविक सामाजिक अवस्था” कहते हैं। इन सामाजिक कीटों के सदस्यों में कार्य का वभाजन रहता है। कुछ मजदूर की तरह यंत्रवत कार्य करते हैं और नपुंसक होते हैं। अतः इन मजदूरों के व्यवहार को समूह के दूसरे सदस्यों, मादा व नर, के प्रति परोपकारी कहा जाता है।
- हाईमनोप्टेरा में आपसी सहायता के उद्विकास को विल्सन ने निम्न अवस्थाओं में बांटा है।
- समूह की रचना।
- कुछ महत्वपूर्ण व्यवहार, जैसे समूह के सदस्यों में घनिष्ट सम्बन्ध; रहने के लिए घोंसला तथा उसकी सुरक्षा; परिवार में माँ-बाप और बच्चे तथा उनकी देख-भाल।
- आनुवंशिक बदलाव से समूह का पीढ़ी दर पीढ़ी प्रसार, परन्तु इसके साथ एक ऐसा परिवर्तन कि एक मादा और उसके व्यस्क बच्चे समूह से बाहर न जा सके।
- समूह क सदस्यों की अंतःक्रिया से नए व्यवहारों का उदगमन तथा यंत्रवत मजदूरों की उत्पत्ति।
- समूह चयन से जटिल गुणों का विकास।
पक्षियों में बच्चों का पालन-पोषण
पक्षी आपस में कई तरह से सहायता करते हैं, जैसे, बच्चे का पालन-पोषण, घोंसला बनाना, शिकारी जंतुओं से बचाना, आदि।[१७] कुछ पक्षी पंखों से विशेष प्रकार से सुसज्जित होते हैं, अर्थात पंख गहनों की तरह लगते हैं, जैसे मोर में नर की कलगी और खूबसूरत डिज़ाइन के लम्बे पंख। उद्विकास की दृष्टि से वैज्ञानिकों के अनुसार नर और मादा में इस प्रकार के पंखों का महत्त्व है। उन्होंने देखा कि कुछ पक्षियों में नर, मादा और अन्य सदस्य आपस में मिल-जुल कर बच्चे का सहकारी पालन-पोषण करते हैं, अनुमान है कि यह पक्षियों में ८ से १७ प्रतिशत है।[१८] अफ्रीका में स्टारलिंग की प्रजातियों में लगभग ४०% बच्चे का सहकारी पालन-पोषण होता है। रुबेनस्टीन और उनके साथियों ने बच्चों का सहकारी और गैर-सहकारी पालन-पोषण करने वाली स्टारलिंग के पंखों के अलंकरण का अध्ययन कर, कहा कि सहकारी में, गैर-सहकारी के मुकाबले में, कम अलंकरण है। दूसरे, सहकारी पालन-पोषण करने वाली प्रजातियों में नर और मादा में समानता है।
हाथी परिवार
चित्र:Bee-Threat-Elicits-Alarm-Call-in-African-Elephants-pone.0010346.s004.ogv अफ्रीका में हाथियों में नर और मादा का समाजिक ढांचा अलग-अलग है।[१९]. नर व्यस्क होने पर स्वतंत्र घूमते हैं और प्रजनन के लिए मादा के संपर्क में आते हैं। हथनियाँ बच्चों के साथ परिवार में रहती हैं, तथा एक क्षेत्र के परिवारों में आपसी सम्बन्ध होते हैं। ली और उनके साथियों ने कई हथनियों के व्यक्तित्व का अध्ययन किया, और पाया कि हथनियां बच्चे का पालन-पोषण में एक दुसरे की सहायता करती हैं।[२०] आपसी मेल-जोले से इन में आपसी लड़ाई-झगड़ा नहीं के बराबर है। हाथी आपस में धीमी आवाज़ों से सम्पर्क में रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इन सम्पर्क आवाज़ों को रिकार्ड कर प्रयोगों के दौरान पुनःप्रसारण किया, और हाथियों के व्यवहार पर असर देखा।[२१]
- इन प्रयोगों से कई बातें सामने आयीं।
- मातृसत्ता का आपसी सहयोग में विशेष योगदान है। परिवार के सदस्य मातृसत्ता के निकट एक रक्षा पंक्ति बनाते हैं।
- मातृसत्ता द्वारा अपनी सूंड हवा में ऊंची कर सूंघना। यदि आवाज़ जाने पहचाने सदस्य की है तो परिवार शांत हो जाएगा।
मधुमक्खियों के छाते की आवाज़, जिन्हें छेड़ा गया हो, के पुनःप्रसारण को सुनकर परिवार एकत्र होकर भाग जाता है।[२२]
नरवानर गण
नरवानर गण में, मनुष्य आपसी सहयोग में सबसे आगे है।[२३][२४] इस भाग में रहेसस बंदर, हनुमान लंगूर और चिम्पैंजी में आपसी सहयोग के कुछ उदाहारण लिए गए हैं।
रहेसस बंदर
वैज्ञानिकों ने पर्यावलोकन से मिली जानकारी के आधार पर रहेसस बंदरों में पाए जाने वाले सहयोगी व्यवहार को १२ श्रेणियों में बांटा, अन्तर्जातीय एवं जत्याभ्यांतर सहकार, सामुदायिक आक्रमण, सामुदायिक प्रतिरक्षा, सह-गमन, सह-चरण, संघ-सुश्रुषा, संघ-क्रीडा, सह-जीविता, सह-मैत्री, सहकारी आक्रमण, सहकारी प्रतिरक्षा, और अभिशमन।[२५] सहयोगी व्यवहार के कुछ प्रतिरूपों की उत्पत्ति समूह के बाहर के वातावरण की समस्याओं का सफलता पूर्वक सामना करने के लिए हुई होगी। इसमें शिकारी जंतुओं से बचाव मुख्य है। अर्थात शत्रुओं द्वारा मारे जाने का डर। इसके लिए बंदरों में अन्तर्जातीय एवं जत्याभ्यांतर सहकार, सामुदायिक आक्रमण, सामुदायिक प्रतिरक्षा, सह-गमन, और सह-चरण श्रेणीओं के व्यवहार देखे गए। कुछ व्यवहार समूह के सदस्यों में सहयोग की भावना का विकास करने में मदद करते होंगे। यह व्यवहार संघ-सुश्रुषा, संघ-क्रीडा, सह-जीविता, और सह-मैत्री श्रेणीओं के अंतर्गत आते हैं। एक साथ रहने से समूह के सदस्यों में प्रतिस्पर्धा भी उत्पन्न होती है। शक्तिशाली बन्दर अन्य बंदरों को डराते हैं या या उन पर हमला करते हैं। समूह में शांति बनाये रखने के लिए बंदरों में कुछ व्यवहार विकसित हुए हैं जिनकी तीन श्रेणियां, सहकारी आक्रमण, सहकारी प्रतिरक्षा, और अभिशमन हैं।
हनुमान लंगूर
आपस में सहायता की उपरोक्त १२ श्रेणियां हनुमान लंगूर में भी देखी गयी हैं।[२६] हर्दी ने भारत में आबू की पहाड़ियों पर १९७७ में लंगूरों का अध्ययन किया और कुछ सहयोगी व्यवहार देखे।[२७] अकेला या समूह में रहने वाला नर लंगूर कभी-कभी दूसरे समूह के मुखिया लंगूर पर हमला करता है। जब यह अनाधिग्रहिता नर समूह का मुखिया बन जाता है तो वह उस समूह की बच्चे वाली मादाओं पर हमला करता है। इस अनाधिग्रहिता नर से अपने बच्चों को बचने के लिए मादाएं एक दुसरे की सहायता करते पायी गयीं।
हर्दी ने हनुमान लंगूर में बच्चे के सहयोगी पालन-पोषण का विशेष वर्णन किया है।[१२] और उन्होंने कहा कि स्नेह सिद्धान्त के लिए, रहेसस बंदर की अपेक्षा, हनुमान लंगूर के बच्चों का सहयोगी पालन-पोषण, एक प्रारूप के लिए ज्यादा सटीक है।
चिम्पैंजी
जेन गुडाल ने तंज़ानिया के जंगल में चिम्पैंजियों को कभी-कभी बंदरों और श्व-वानरों के बच्चों पर हमला करते देखा।[२८] ऐसी घटनाओं के समय चिम्पैंजियों को आपस में अदभुत सहयोग करते पाए गए। व्यस्क नर मिलकर शिकार की घात लगाते दिखे, पहले बच्चे को श्व-वानरों के समूह से अलग करते, और फिर उसे चारों और से घेर लेते। अन्य श्व-वानर यदि अपने बच्चे को छुड़ाने का यत्न करते तो उन्हें भगा देते। जब मुख्य शिकारी नर उस बच्चे को मारने में सफल हुआ और उसे खाना शुरू किया, तो दूसरे चिम्पैंजी हाथ फैलाकर मांगते दिखाई दिए। और बीच-बीच में उन्हें कुछ टुकड़े मिले भी। इस व्यवहार के अतिरिक्त, गुडाल ने जंगली चिम्पैंजियों में बच्चे को गोद लेने की घटनायें भी देखीं। तीनों में अपाहिज बच्चों को गोद लिया गया। माँ के अतिरिक्त समूह के दुसरे सदस्य भी बच्चे की सुरक्षा एवं देख-भाल में सहायता करते पाए गए।
क्राफर्ड ने १९३५ में चिम्पैंजी में सहयोग का अध्ययन किया।[२९] दो चिम्पैंजियों को पहले अलग-अलग एक समस्या को सुलझाना सिखाया। चिम्पैंजी को एक लोहे की छड़ों से बने पिंजरे में रक्खा गया। उसके सामने कुछ दूरी पर एक बक्से के ऊपर कुछ केले रक्खे। फिर एक रस्सी बक्से से बंधकर, उसका दूसरा कोना चिम्पैंजी को पकड़ा दिया। कुछ ही क्षणों में चिम्पैंजी ने बक्सा अपनी ओर खींचा और केले खा लिया। फिर बक्से को इतना भारी कर दिया की एक चिम्पैंजी उस को न खींच सके। अब दोनों चिम्पैंजियों के पिंजरों को पास-पास रख, दोनों के हाथ में अलग अलग रस्सी दी जो उस बक्से से बंधी थी जिस पर केले थे। शुरू में दोनों चिम्पैंजियों ने बक्से को अपनी-अपनी ओर खींचा। कुछ प्रयासों के बाद वह दोनों उस बक्से को एक साथ खींचना सीख गए।
मेलिस और उनके साथियों ने क्राफर्ड से कुछ भिन्न परिस्थितियाँ संजोकर देखा कि चिम्पैंजी प्रयोगशाला में सहज सहयोगी व्यवहार तभी करते हैं जब उन्हें अपनी मर्ज़ी से सहयोगी चुनने दिया जाये।[३०]
एक अन्य प्रयोग में, शेल और अन्य लोगों ने चिम्पैंजियों की टोली के रस्ते में सांप (चलते हुए पायथन का माडल) रखा।[३१] एक चिम्पैंजी जिसने उस सांप को पहले देखा, उसने अपने साथी की ओर देखते हुए खतरे की आवाज़ दी। जौली के अनुसार शिकार करना जो मनुष्य के समूह में सहयोग का आधार माना जाता है, नरवानर गण में केवल चिम्पैंजी में इसके कुछ अंश पाए गए। [२४]
मानव समूह
जीववैज्ञानिक विल्सन का मानना है कि मनुष्यों में खाने के स्रोतों पर नियंत्रण के लिए सुरक्षित क्षेत्र से जुड़े सहज व्यवहारों का विकास हुआ होगा जो समूह के सदस्यों में संसक्ति, सामाजिक जाल, और मैत्री बनाए रखे।[१६] उनका कहना है कि समूह के स्तर के गुणों का, जैसे, सहयोग की भावना, तदनुभूति, और आपसी सम्बन्धों के प्रारूपों का एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में प्रसार होता है। और दूसरे, सहयोग और एकता समूह के अस्तित्व के लिए ज़रूरी है। इसलिए व्यक्ति और समूह दोनों स्तर पर प्राकृतिक चयन की सोच महत्वपूर्ण है, यही बहुस्तरीय चयन है। विल्सन ने दोनों, पारिस्थितिकीय और मनोवैज्ञानिक, पहलुओं पर बल दिया। विल्सन लिखते हैं की मानवशास्त्रियों ने मनुष्य के समाज का तीन मुख्य स्तरों पर वर्णन किया है। सबसे पहले समतावादी आदिम समाज और गाँव आते हैं, फिर छोटे-बड़े सामंत जो लोगों पर शासन करता हैं, और तीसरे स्तर पर छोटे-बड़े राज्य आते हैं जहाँ केंद्रीय सत्ता रहती है। सांस्कृतिक विकास के इन स्तरों पर आधारित सहयोग के पहलू आगे के तीन भागों में दिए गए हैं।
पारिस्थितिकीय दृष्टि
माधव गाडगिल ने अपने अध्ययनों में विभिन्न स्तरों के सामाजिक तंत्रों, जंतुओं और मनुष्यों दोनों में, पारिस्थितिकीय पहलू को प्राथमिकता दी है।[३२] उनका मानना है कि सामाजिक संगठन जीवन के स्रोतों की सुलभता से जुड़ा है। इस सुलभता का वितरण समतामूलक समाज में सामान्यतः सरल है, परन्तु जैसे-जैसे समाज का संगठन जटिल होगा, इसमें विषमताएं आएँगी। गाडगिल का मानना है कि प्राचीन भारतीय समाज में इस समस्या का काफी हद तक समाधान किया गया था, जिसका मुख्य आधार समूह के सभी सदस्यों की जीवन की मुख्य आवश्यकताओं की पूर्ती उसके आस-पास के स्रोतों से समान रूप से हो। मुख्यतः यह समूह जंतुओं का शिकार या ज़रूरी वस्तुएं बीनकर आपना जीवन यापन करते हैं। जैसे-जैसे खेती-बाड़ी शुरू हुई, समाज में अधिकतर इस व्यवसाय से जीवन यापन करने लगे। कुछ जातियां खेती में लगे लोगों की सहायता के लिए अन्य कामों में प्रवीण हो गयीं, जैसे पुरोहित, बुनकर, गाने-बजाने वाले, आदि। किन्तु बाहरी समूहों के आक्रामक व्यवहार से, यह प्राचीन व्यवस्था क्षीण होती गयी, तथा प्राकृतिक स्रोतों के दोहन की नयी व्यवस्थाओं ने जन्म लिया।
प्राकृतिक स्रोतों के दोहन की नयी व्यवस्थाओं पर माधव गाडगिल ने कुछ प्रश्न चिन्ह लगाये। एक, समतामूलक समूहों के स्रोतों पर अव्यवहारिक आघात; दुसरे, जैविक विविधता पर निरंकुश अत्याचार; तीसरे, वन-प्रबन्ध की अवैज्ञानिक सोच।[३२][३३][३४]
- माधव गाडगिल ने इन विषमताओं से बाहर निकलने का जो मार्ग सुझाया उसका आधार सहयोग और परोपकार है, जिसके मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं।
वैश्वीकरण और सहयोग
नौवाक का कहना है कि अमीबा से लेकर मनुष्य तक अनेक प्रकार के सामाजिक प्रारूप देखने में आते हैं जिनका समाधान उद्विकास की दृष्टि से पांच सिद्धान्तों, जो इस लेख के आरम्भ में हैं, के अन्तर्गत किया जा सकता है।[३] इनका मत है कि शायद सूचना के आदान-प्रदान से अपने समूह से बाहर के लोगों के साथ सम्बन्धों का जाल बनाना मनुष्य में आपसी सहायता के विकास में महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
आज दुनिया में सहयोग की सबसे अधिक ज़रुरत, नौवाक लिखते हैं, सात अरब लोगों को पृथ्वी के तेज़ी से घटते स्रोतों को बचाने की मोहिम में लगाना है, और इस बारे में नीति निर्धारकों को सहयोग पर हो रही खोजों पर ध्यान देना चाहिए।
वैश्वीकरण के सन्दर्भ में ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमें दुनिया के देश आपस में सहयोग से समस्याओं का समाधान निकालने में लगे हैं, जैसे तापक्रम में वृद्धि और मौसम में बदलाव।[३९] बढ़ते तापक्रम से मौसम में बदलाव से मनुष्य के जीवन पर खतरे की आहट से सभी देश आपस में सहयोग के लिए २०१५ में पेरिस में मिले। उन्होंने कई समझौतों के प्रस्तावों पर हस्ताक्षर किये, एक सामूहिक उद्देश्य रखा कि पृथ्वी के तापक्रम को औद्योगिकरण से पहले के स्तर पर लाना है।[४०]
उद्देश्य की प्राप्ति में ज्ञान का आदान-प्रदान महत्वपूर्ण है, और विकिपीडिया इसका अनूठा उदहारण है। आपसी सहायता पर आधारित यह मोहिम तेज़ी से आगे बढ़ रही है। रीगल ने विकिपीडिया का आरंभ से लेकर विष्लेषण किया है और उन्होंने इसकी कार्यप्रणाली को आपसी मदद माना जैसा क्रोपोत्किन की सोच में नीहित है। [४१]
ज़ारी ने विकपीडिया को सामूहिक उत्पाद का एक जाना-माना उदाहरण बताया।[४२] यह एक गैर लाभ धर्मार्थ संगठन, विकिमीडिया, द्वारा संचालित विश्व भर में ज्ञान का मुफ्त और प्रमाणिक स्रोत तथा स्वैच्छिक सहयोग का कार्यक्रम है। इस एनसायक्लोपीडिया के अतिरिक्त इस संगठन के अन्य कार्यक्रम भी हैं।[४३]
पराप्राकृतिक विश्वास
पराप्राकृतिक विश्वास के आधार पर लोग छोटे-छोटे समूहों से लेकर विशाल धार्मिक समुदायों का रूप ले लेते हैं, एप्ले आदि ने लिखा है कि विश्व में लगभग १०००० ऐसे समूह होंगे।[४४] गियरेर ने अरब समुदाय में असाबियाह के सिद्धान्त का वर्णन किया, तथा उसकी तुलना आधुनिक जीवविज्ञान में प्रचलित परोपकार के सिद्धान्तों से की, जो इस लेख के भाग दो में दिए गए हैं।[४५]
पुरजैस्की और उनके साथियों ने अपनी खोज के आधार पर निष्कर्ष निकला कि दुनिया भर में लोगों के छोटे-छोटे समूह, जिनमें किसी देवता की छवी व्यक्ति के मन में सर्वोच्च ज्ञानवान, दंड देने वाले, तथा मर्यदारक्षक की है, यह कारक आपसी सहायता को मज़बूत करता है।[४६] अन्य खोज कर्ताओं ने पाया कि अलौकिक तत्वों से जुड़े जटिल और महंगे अनुष्ठान आपसी मेल-जोल को बढ़ावा देते हैं। तथा, इन व्यवहारों और परम्पराओं का विकास समूह चयन की प्रक्रिया द्वारा सम्भव है। इस प्रक्रिया में चयन की इकाई एक व्यक्ति या जीन नहीं, अपितु पूरा समूह, जिसमें ऐसे अनुष्ठानों की परम्परा है, फैलता है या विलुप्त होता है।[४७] वैज्ञानिक कहते हैं कि इस तरह के पराप्राकृतिक विश्वास भक्त और उसके अराध्य देव में आपसी स्नेह की भावना के रूप में विकसित होते हैं, जिसके चार संज्ञानात्मक या आतंरिक प्रारूप हैं, भक्त का देवता से निकट सम्बन्ध, इससे बिछुड़ने पर विरह वेदना, इसके सहारे परिसर की खोज, तथा बाहरी भय से इसमें आसरा लेना।[४८]
ऐसे ही एक व्यक्ति थे भगत पूरण सिंह (१९०४-१९९२) जिनके अन्दर स्नेह तंत्र का विकास बड़े विचित्र रूप से हुआ, आरंभ में माँ के सम्पर्क में, और फिर श्री गुरुनानक देव जी के भक्ति मार्ग को अपनाकर। इसका विस्तार में वर्णन आनंद[४९] और सिंह तथा सेखों[५०] ने किया है। भगत पूरण सिंह में स्नेह की जड़ें इतनी मज़बूत और गहरी थी, की आज भी उनके द्वारा बनाई संस्था पिंगलवाड़ा, अमृतसर में लोग असहाय, विकलांग, मानसिक रोगियों तथा अन्य ज़रूरतमंद लोगों की निःस्वार्थ सेवा में लगे हैं।
सिख गुरुओं के दो मंत्र, दूसरों के लिए करुणा, और निःस्वार्थ सेवा, भगत पूरण सिंह के लिए मुक्ति का मार्ग थे। उनकी करुणामय सेवा से प्यारा, एक विकलांग, ६० साल उनके साथ रहा।[४९] भगत पूरण सिंह ने, अपनी माँ की इच्छा तथा तत्कालीन पंजाब की ग्रामीण परम्परा के अनुसार, लोगों को त्रिवेणियाँ--नीम, पीपल और बढ़ प्रजातियों के पेड़--लगाने के लिए प्रोत्साहित किया।[५०]
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ १.० १.१ १.२ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ २.० २.१ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ ३.० ३.१ ३.२ ३.३ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ ४.० ४.१ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ ९.० ९.१ ९.२ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ ११.० ११.१ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ १२.० १२.१ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ १५.० १५.१ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ १६.० १६.१ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ २४.० २४.१ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
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- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ ३२.० ३२.१ ३२.२ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
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- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ साँचा:जर्नल सन्दर्भ
- ↑ ४९.० ४९.१ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ
- ↑ ५०.० ५०.१ साँचा:पुस्तक सन्दर्भ