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केशवराम काशीराम शास्त्री (जन्म:28 जुलाई 1905; मृत्यु:9 सितम्बर 2006) विश्व हिन्दू परिषद के वह संस्थापक सदस्य थे। वे एक जानमाने साहित्यकार और इतिहासकार थे। महामहर्षि पू. के.का. शास्त्री को "भारतमार्तंड", "विद्यावाचस्पति", "पद्मश्री", "महामहोपाध्याय", "भाषा भास्कर" जैसी कितनी ही पदवियां प्राप्त हुई थीं। गुजराती साहित्य जगत का उत्कृष्ट "रणजीतराम सुवर्णचन्द्रक" पुरस्कार और 42 से अधिक सम्मान उनको मिले थे। श्री शास्त्री कीर्तनकार, साहित्यकार, प्रवचनकार, पुरातत्वविद, इतिहासकार, धर्मप्रचारक, समाज सुधारक, तत्वचिंतक, हिन्दुत्व के प्रति प्रखर श्रद्धा भाव रखने वाले ऋषि थे। वें प्राध्यापक, विद्वान, अनुसंधानात्मक कोश-रचयिता, चरित्र लेखक, नाटलेखक, संपादक, अनुवादक, भाषाशास्त्री, साहित्यकार, प्रवचनकार, पुरातत्वविद्, धर्मप्रचारक, समाज सुधारक और तत्वचिंतक भी हैं।[१]
जीवन परिचय
विक्रम संवत् 1961 आषाढ़ 11 शुक्रवार (28 जुलाई 1905) को जन्मे विद्यावाचस्पति प्रा. शास्त्री का 102 वर्ष में भी एक युवा की भांति अत्यंत चपलता से, चुस्ती से अपना सारा दिन कामकाज में व्यतीत करते थे। सामान्यतया कोई भी व्यक्ति 75-80 की आयु में अपनी शारीरिक मर्यादाओं के कारण कामकाज से निवृत्त होकर घर में समय व्यतीत करता है, लेकिन शास्त्री जी से जब यह पूछा गया था कि आपकी 101 वर्ष की आयु में भी इतनी स्फूर्ति का रहस्य क्या है, तो उन्होंने कहा था -"कम खा और गम खा यानी कम खाना और कोई भला-बुरा कहे तो मैं हंस देता हूं। कोई भी बुरी बात या घटना मैं अपने मन पर हावी नहीं होने देता और शिष्ट तथा समयबद्ध जीवन-यही मेरे स्वास्थ्य का रहस्य है।"
श्री शास्त्री सुबह पांच-साढ़े पांच बजे उठकर नित्य क्रिया समाप्त कर सुबह पौने आठ बजे अपने घर से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर वल्लभाचार्य जी के मन्दिर दर्शन करने जाते थे। यहां पर एक घंटे तक भजन-कीर्तन करते थे। घर आकर स्नान-भोजन कर बारह बजे लिखना, पढ़ना-संशोधन का कार्य पूरा करते थे, जो शाम पांच बजे तक जारी रहता था।
श्री शास्त्री विश्व हिन्दू परिषद, गुजरात के प्रदेश अध्यक्ष थे। इस नाते वह नियमित रूप से हर रोज शाम पांच से सात बजे तक विश्व हिन्दू परिषद के कार्यालय में बैठते थे। सात बजे घर आकर पुन: लिखना-पढ़ना आरंभ कर देते थे। किसी भी हाल में, चाहे कोई भी व्यक्ति मिलने क्यों न आए, वह रात दस बजे सो जाते थे। श्री शास्त्री ने 172 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। इनमें धर्म, समाज, संस्कृति, नाटक, व्याकरण, संशोधनात्मक आदि विषयों पर उनके प्रगाढ़ चिंतन की झलक मिलती है। श्री शास्त्री शिक्षक, संशोधक, व्यवस्थापक, संपादक, लेखक, मार्गदर्शक, व्याकरण शास्त्री, संस्कृत के प्रकांड पंडित, नाट शास्त्री और मान्य भाषा शास्त्री थे। यह आश्चर्यजनक बात है कि अनेक विषयों के ज्ञाता श्री शास्त्री का अध्ययन सिर्फ माध्यमिक शिक्षा तक ही हुआ था। इसके बावजूद वह पीएच.डी. की मानद उपाधि प्राप्त कर चुके थे। उनकी प्रतिभा देखकर गुजरात विद्या सभा ने 1939 में उनको एम.ए. के छात्रों को पढ़ाने का कार्य सौंपा था। मुम्बई विश्वविद्यालय ने 1994 में तथा गुजरात विश्वविद्यालय ने 1951 में शास्त्री को अनुस्नातक के प्राध्यापक तथा 1955 में पीएच.डी. के मार्गदर्शक की मान्यता दी थी। श्री शास्त्री ने यह सब अपने कर्मयोग के आधार पर प्राप्त किया था। उन्होंने पद्मश्री से लेकर विद्यावाचस्पति तक के अनेक सम्मान प्राप्त किए थे।
पढ़ाई बीच में छोड़ने के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में शास्त्री ने कहा था, "1922 में माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके तुरन्त बाद महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के विरुद्ध अभियान छेड़ा था। अंग्रेजी अध्ययन के प्रति नफरत पैदा हो गई, इस कारण महाविद्यालय में जाने का मन ही नहीं हुआ। हां, प्रारम्भ से ही मुझे संस्कृत से गहरा लगाव था।" हिन्दुत्व को लेकर उत्पन्न वर्तमान स्थिति के बारे में श्री शास्त्री का स्पष्ट कहना था -"जब आप किसी चीज पर ज्यादा दबाव डालेंगे तो उसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। हिन्दू समाज अब अन्याय-अपमान सहने वाला नहीं है। कैलास यात्री को एक पैसा न दो और हजयात्री को अरबों की खैरात बांटो, यह बात अब नहीं चलेगी। हिन्दू समाज अब जाग्रत हो चुका है। मैंने इतनी जाग्रति कभी नहीं देखी। हां, अभी और तीव्रता से काम करने की जरूरत है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ समाज आशा भरी नजरों से देख रहा है।" ऐसे के.का. शास्त्री जीवन के अंतिम क्षण तक हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू समाज की सेवा करते रहे। उनकी विश्व हिन्दू परिषद के प्रति गहरी आस्था थी। शासद इसीलिए उन्होंने अपने अंतिम पत्र में लिखा था -"मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर को श्मशान ले जाने से पूर्व विश्व हिन्दू परिषद कार्यालय में ले जाया जाय।"[२]