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कॉप्टिक भाषा

भारतपीडिया से

साँचा:Infobox language कॉप्टिक या कोप्ती मिस्र की एक भाषा थी जो १७वीं शताब्दी तक लुप्त हो गयी। यह प्राचीन मिस्रियों के आधुनिक वंशधर कोप्तों (किब्त, कुब्त) की भाषा थी।

कोपी भाषा उस प्राचीन मिस्री से निकली थी जो स्वयं चित्रलिपिक (हिरोग्लिफ़िक), पुरोहिती (हिरेतिक), देमोतिक आदि अनेक रूपों में लिखी गई। दीर्घकाल तक, ग्रीक भाषा के घने प्रभाव के बावजूद, कोप्ती अपनी निजता बनाए रही। अरबों की मिस्र विजय ने नि:संदेह इसपर अपना गहरा प्रभाव डाला और अरबी प्राय: इसे आत्मसात् कर गई। १७वीं सदी ईसवी तक पहुँचते-पहुँचते इसके अस्तित्व का लोप हो गया। दूसरी सदी ईसवी में देमोतिक से मिलीजुली वह जंतर-मंतर के उपयोग के लिए लिखी जाने लगी थी। तब तक उसका रूप प्राय: शुद्ध प्राचीन था।

प्राचीन कोप्ती की अपनी अनेक जनबोलियाँ भी थीं जिनमें तीन - साहीदी, अख़मीमी और फ़ायूमी प्रधान थीं। ग्रीक भाषा प्रभावित इन बोलियों का उपयोग अधिकतर १३वीं सदी तक होता रहा, पर अरबी के बढ़ते हुए प्रभाव और प्रयोग के धीरे-धीरे इसका अस्तित्व मिटा दिया। इनके धार्मिक साहित्यों की व्याख्या तक अरबी में होने लगी। स्वयं कोप्तों ने १०वीं सदी से ही अरबी में लिखना-पढ़ना शुरू कर दिया था, यद्यपि कोप्ती का साहित्यिक व्यवहार एक अंश में १४वीं सदी तक जहाँ-तहाँ दीख जाता है। प्राय: पिछले ३०० वर्षों से बोली जानेवाली भाषा के रूप में कोप्ती का उपयोग उठ गया है।

साधारणत: माना जाता है कि कोप्त जाति और भाषा का संबंध मिस्र के उस कुफ्त गाँव से है जो नील नदी के पूर्वी तट पर प्राचीन थीब्ज़ से प्राय: ३५ किमी उत्तर-पूर्व आज भी खड़ा है। कोप्त लोग ईसा की तीसरी चौथी सदी में ईसाई हो गए थे। वस्तुत: प्राचीन मिस्री ईसाइयों का ही नाम कोप्त पड़ा और उनकी भाषा कोप्ती कहलाई। इसकी जनबोली साहीदी बियाई जनपद में बोली जाती थी, जैसे अख़मीमी अख़मीम के पड़ोस में और फ़ायुमी फ़ायूम के आस पास मिस्र के मध्य भाग में, मेंफ़िस तक। बोहाइरी नाम की कोप्ती बोली डेल्टा के उत्तर-पश्चिमी भाग में बोली जाती थी। इसमें लिखा नवीं सदी का ईसाई साहित्य आज भी उपलब्ध है।

कोप्ती का प्राय: समूचा साहित्य धार्मिक है जो मूलत: ग्रीक से अनूदित है। साहीदी, अख़मीमी और फ़ायूमी तीनों में बाइबिल की पुरानी और नई दोनों पोथियों के अनुवाद ४५० ई. से पूर्व ही प्रस्तुत हो चुके थे। धर्मेतर विषयों का बहुत थोड़ा साहित्य कोप्ती में लिखा गया या आज बच रहा है। इसमें कुछ तो झाड़-फूँक या जंतर-मंतर संबंधी प्रयोग हैं, कुछ चिकित्सा से संबंधित हैं, कुछ में सिकन्दर और मिस्रविजेता प्राचीन ईरानी सम्राट् कंबुजीय की जीवन की घटनाएँ हैं। १३वीं-१४वीं सदी में काप्ती का यह रूप भी अरबी के प्रभाव से मिट गया।