गुरु अंगद देव
साँचा:ज्ञानसन्दूक | label1 = जन्म | data1 = | label2 = | data2 = | label3 = मौत की वजह | data3 = | data4 = | label4 = शरीर मिला | label5 = समाधि | class5 = label | data5 = {{{resting_place}}} | label6 = आवास | class6 = label | data6 = | label7 = राष्ट्रीयता | data7 = | label8 = उपनाम | class8 = उपनाम | data8 = | label9 = जाति | data9 = | label10 = नागरिकता | data10 = | label11 = शिक्षा | data11 = {{{शिक्षा}}} | label12 = शिक्षा की जगह | data12 = | label13 = पेशा | class13 = भूमिका | data13 = | label14 = कार्यकाल | data14 = | label15 = संगठन | data15 = | label16 = गृह-नगर | data16 = | label17 = पदवी | data17 = | label18 = वेतन | data18 = | label19 = कुल दौलत | data19 = | label20 = ऊंचाई | data20 = | label21 = भार | data21 = {{{भार}}} | label22 = प्रसिद्धि का कारण | data22 = | label23 = अवधि | data23 = | label24 = पूर्वाधिकारी | data24 = | label25 = उत्तराधिकारी | data25 = | label26 = राजनैतिक पार्टी | data26 = | label27 = बोर्ड सदस्यता | data27 = | label28 = धर्म | data28 = | label29 = जीवनसाथी | data29 = | label30 = साथी | data30 = | label31 = बच्चे | data31 = | label32 = माता-पिता | data32 = | label33 = संबंधी | data33 = | label35 = कॉल-दस्तखत | data35 = | label36 = आपराधिक मुकदमें | data36 = | label37 = | data37 = साँचा:Br separated entries | class38 = label | label39 = पुरस्कार | data39 = | data40 = | data41 = | data42 = }}
साँचा:Infobox ReligiousBio साँचा:सन्दूक सिख धर्मसाँचा:सिक्खी
अंगद देव या गुरू अंगद देव सिखो के दूसरे गुरू थे। गुरू अंगद देव महाराज जी का सृजनात्मक व्यक्तित्व था। उनमें ऐसी अध्यात्मिक क्रियाशीलता थी जिससे पहले वे एक सच्चे सिख बनें और फिर एक महान गुरु। गुरू अंगद साहिब जी (भाई लहना जी) का जन्म हरीके नामक गाँव में, जो कि फिरोजपुर, पंजाब में आता है, वैसाख वदी १, (पंचम् वैसाख) सम्वत १५६१ (१० अप्रैल १५०४) को हुआ था। गुरुजी एक व्यापारी श्री फेरू जी के पुत्र थे। उनकी माता जी का नाम माता रामो देवी जी था। बाबा नारायण दास त्रेहन उनके दादा जी थे, जिनका पैतृक निवास मत्ते-दी-सराय, जो मुख्तसर के समीप है, में था। फेरू जी बाद में इसी स्थान पर आकर निवास करने लगे।
प्रारंभिक जीवन
अंगद देव का पूर्व नाम लहना था। भाई लहणा जी के ऊपर सनातन मत का प्रभाव था, जिस के कारण वह देवी दुर्गा को एक स्त्री एंवम मूर्ती रूप में देवी मान कर, उसकी पूजा अर्चना करते थे। वो प्रतिवर्ष भक्तों के एक जत्थे का नेतृत्व कर ज्वालामुखी मंदिर जाया करता था। १५२० में उनका विवाह माता खीवीं जी से हुआ। उनसे उनके दो पुत्र - दासू जी एवं दातू जी तथा दो पुत्रियाँ - अमरो जी एवं अनोखी जी हुई। मुगल एवं बलूच लुटेरों (जो कि बाबर के साथ आये थे) की वजह से फेरू जी को अपना पैतृक गाँव छोड़ना पड़ा। इसके पश्चात उनका परिवार तरन तारन के समीप अमृतसर से लगभग २५ कि॰मी॰ दूर स्थित खडूर साहिब नामक गाँव में बस गया, जो कि ब्यास नदी के किनारे स्थित था।
बाबा नानक से मिलन और गुरमत विचारधारा से सहमती
एक बार भाई लहना जी ने भाई जोधा जी (सतगुर नानक साहिब के अनुयायी एक सिख) के मुख से गुरू नानक साहिब जी के शबद सुने और शब्द में कहे गए गुरमत के फलसफे से वो बहुत प्रभावित हुए। लहना जी निर्णय लिया कि वो सतगुर नानक साहिब के दर्शन के लिए करतारपुर जायेंगे। उनकी सतगुर नानक साहिब जी से पहली भेंट ने उनके जीवन में क्रांति ला दी। सतगुर नानक ने उन्हें आदि शक्ति या हुक्म का भेद समझाया और बताया की परमेशर की शक्ति कोई औरत या मूर्ती नहीं है बल्कि वो रूप हीन है और उसकी प्राप्ति सिर्फ अपने अंदर से ही की जा सकती है। सतगुरु नानक से भाई लहने ने आत्मज्ञान लिया जिसने उन्हें पूर्ण रूप से बदल दिया।
वो सतगुर नानक साहिब की विचारधारा के सिख बन गये एवं करतारपुर में निवास करने लगे। वे सतगुर नानक साहिब जी के अनन्य सिख थे। सतगुर नानक देव जी के महान एवं पवित्र मिशन के प्रति उनकी महान भक्ति और ज्ञान को देखते हुए सतगुर नानक साहिब जी ने ७ सितम्बर १५३९ को गुरुपद प्रदान किया और गुरमत के प्रचार का जिम्मा सौंपा गया। सतगुर नानक के लडके इस बात से नाराज हुए और गुरु घर के विरोधी बन गए।
गुरू साहिब ने उन्हें एक नया नाम अंगद (गुरू अंगद साहिब) दिया। उन्होने गुरू साहिब की सेवा में ६ से ७ वर्ष करतारपुर में बिताये।
जीवन कार्य
२ अक्टूबर १५३९ को गुरू नानक साहिब जी की ज्योति जोत समाने के पश्चात गुरू अंगद साहिब करतारपुर छोड़ कर खडूर साहिब गाँव (गोइन्दवाल के समीप) चले गये। उन्होने गुरू नानक साहिब जी के विचारों को दोनों ही रूप में, लिखित एवं भावनात्मक, प्रचारित किया। विभिन्न मतावलम्बियों, मतों, पंथों, सम्प्रदायों के योगी एवं संतों से उन्होंने आध्यात्म के विषय में गहन वार्तालाप किया।
गुरू अंगद साहिब ने गुरु नानकदेव प्रदत्त पंजाबी लिपि के वर्णों में फेरबदल कर गुरूमुखी लिपि की एक वर्णमाला को प्रस्तुत किया। वह लिपि बहुत जल्द लोगों में लोकप्रिय हो गयी। उन्होने बच्चों की शिक्षा में विशेष रूचि ली। उन्होंने विद्यालय व साहित्य केन्द्रों की स्थापना की। नवयुवकों के लिए उन्होंने मल्ल-अखाड़ा की प्रथा शुरू की। जहां पर शारीरिक ही नहीं, अपितु आध्यात्मिक नैपुण्यता प्राप्त होती थी। उन्होने भाई बाला जी से गुरू नानक साहिब जी के जीवन के तथ्यों के बारे में जाना एवं गुरू नानक साहिब जी की जीवनी लिखी। उन्होने ६३ श्लोकों की रचना की, जो कि गुरू ग्रन्थ साहिब जी में अंकित हैं। उन्होने गुरू नानक साहिब जी द्वारा चलायी गयी 'गुरू का लंगर' की प्रथा को सशक्त तथा प्रभावी बनाया। गुरू अंगद साहिब जी ने गुरू नानक साहिब जी द्वारा स्थापित सभी महत्वपूर्ण स्थानों एवं केन्द्रों का दौरा किया एवं सिख धर्म के प्रवचन सुनाये। उन्होने सैकड़ों नयी संगतों को स्थापित किया और इस प्रकार सिख धर्म के आधार को बल दिया। क्योंकि सिख धर्म का शैशवकाल था, इसलिए सिख धर्म को बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। सिख पंथ ने अपनी एक धार्मिक पहचान स्थापित की। गुरू अंगद साहिब ने गुरू नानक साहिब द्वारा स्थापित परम्परा के अनुरूप अपनी मृत्यु से पहले अमर दास साहिब को गुरुपद प्रदान किया। उन्होंने गुरमत विचार-गुरु शबद् रचनाओं को गुरू अमर दास साहिब जी को सौंप दिया। ४८ वर्ष की आयु में ८ अप्रैल १५५२ को वे ज्योति जोत समा गए। उन्होंने खडूर साहिब के निकट गोइन्दवाल में एक नये शहर का निर्माण कार्य शुरू किया था एवं गुरू अमर दास जी को इस निर्माण कार्य की देख रेख का जिम्मा सौंपा था।
साँचा:सिखों के दस गुरुसाँचा:सिख धर्म
सन्दर्भ
बाहरी सूत्र
- sikhs.org
- sikh-history.com
- sikhmissionarysociety.org
- Guru Angad Dev Ji Biographyसाँचा:Dead link
- allaboutsikhs.com
- Learn more about Sri Guru Angad Dev Ji
- Guru Angad Sahib Ji
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