मेनू टॉगल करें
Toggle personal menu
लॉग-इन नहीं किया है
Your IP address will be publicly visible if you make any edits.

शुद्ध विधि का सिद्धान्त

भारतपीडिया से

शुद्ध विधि का सिद्धान्त (जर्मन : Reine Rechtslehre ; अंग्रेजी: Pure Theory of Law) विधि-सिद्धान्तकार हैंस केल्सन द्वारा रचित एक पुस्तक है जो सर्वप्रथम १९३४ में प्रकाशित हुई थी। इसका द्वितीय संस्करण १९६० में आया। इस पुस्तक में कानून का जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है वह सम्भवतः २०वीं शदी का सबसे प्रभावशाली विधि-सिद्धान्त है।

शुद्ध विधि के सिद्धान्त के प्रमुख विशेषताएँ

फ्रीडमैन के अनुसार शुद्ध विधि सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ हैं -

  • (१) अन्य किसी विज्ञान की तरह शुद्ध विधि के सिद्धान्त का लक्ष्य अव्यवस्था और विविधता को कम कर एकता की स्थापना करना है।
  • (२) विधिक सिद्धान्त की प्रकृति वैज्ञानिक है, संकल्पनात्मक (Volitional) नहीं। अतः यह एक विज्ञान है न कि संकल्प या इच्छा की अभिव्यक्ति। यह विधि ‘‘क्या है’’ का ज्ञान है, ‘‘विधि क्या होनी चाहिए’’ का नहीं।
  • (४) मानकों के सिद्धान्त के रूप में विधि के सिद्धान्त का सम्बन्ध विधिक मानकों की प्रभावकारिता से नहीं है।
  • (५) विधि का सिद्धान्त प्रारूपिक है जो विधि की अर्न्तवस्तु में विशिष्ट तरीके से परिवर्तन के द्वारा व्यवस्था स्थापित करने के माध्यम का सिद्धान्त स्पष्ट करता है।

शुद्ध विधि की व्याख्या

केल्सन के अनुसार निश्चयात्मक विधि सम्बन्धी कथन न तो नैतिक और राजनीतिक मूल्य सम्बन्धी कथन है और न ही तथ्य सम्बन्धी। यह इसलिए 'शुद्ध' कहा जाता है कि यह निश्चयात्मक विधि की पहचान में इससे बाह्य सभी तत्वों को अलग कर देता है। केल्सन के अनुसार शुद्ध विधि के सिद्धान्त की सीमा और संज्ञान या अनुभूति दो दिशाओं में निश्चित की जानी चाहिए। विधि का विशिष्ट विज्ञान जिसे विधिशास्त्र कहा जाता है- एक तरफ न्याय के दर्शन से अलग किया जाना चाहिए और दूसरी तरफ समाजशास्त्र या सामाजिक वास्तविकता के संज्ञान से अलग किया जाना चाहिए। न्याय को केल्सन ने अयुक्तिपरक आदर्श (Irrational ideal) माना है क्योंकि यह कहना कि न्याय जैसी वस्तु है परन्तु उसे परिभाषित नहीं करना स्वयं में अन्तर्विरोध का द्योतक है। केल्सन के अुनसार विधि का सिद्धान्त इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता है कि न्याय किन तत्वों से बनता है क्योंकि यह प्रश्न वैज्ञानिक तौर पर उत्तर देने योग्य नहीं है। यदि न्याय का कोई वैज्ञानिक तौर पर अर्थपूर्ण नाम देता है तो विधिमान्यता के रूप में उसकी पहचान आवश्यक है। केल्सन के अनुसार एक नियम के लिए यह उचित है कि सामान्य नियम के रूप में इसका प्रयोग हर मामले में किया जाये जिनमें इसकी अन्तर्वस्तु के अनुसार अपेक्षा की गई है। इस तरह ‘‘न्याय’’ का तात्पर्य शुद्ध अन्तःकरण से इसके प्रयोग द्वारा निश्चयात्मक व्यवस्था को कायम करना है। अतः केल्सन ने विधि से आदर्शात्मक तत्व को अलग कर इसकी शुद्धता कायम करनी चाही है और ’’विधि जो है’’ की व्याख्या करनी चाही है न कि ‘‘विधि जो होनी चाहिए’’ की।

केल्सन ने अपनी अध्ययन प्रणाली का लक्ष्य विधि के विज्ञान से राजनीतिक और आदर्शात्मक तत्वों को अलग करने तक सीमित नहीं रखा। इससे एक कदम और आगे बढ़कर उन्होंने विधि के सिद्धान्त को विधि से इतर सभी तत्वों से स्वतंत्र करने का प्रयास किया। केल्सन के अनुसार ‘‘आलोचनात्मक ढंग से विधि का सिद्धान्त मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र और राजनीतिक सिद्धान्त के तत्वों के साथ मिश्रित हो गया है।’’ उन्होंने विधिवेत्ताओं और न्यायाधीशों के कार्यां से इन तत्वों को पूर्णतः अलग कर विधि की शुद्धता पुनर्स्थापित कर शुद्ध विधिक तत्वों की पहचान पर बल दिया। केल्सन का यह मानना है कि विधि के साथ अन्य विधाओं का अपमिश्रण समझने योग्य है क्योंकि इन विधाओं से सम्बन्धित सामग्री का विधि से गहरा सम्बन्ध है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि इन विधाओं के विरूद्ध शुद्ध विधि के सिद्धान्त द्वारा विधि के ज्ञान के दायरे को संकुचित करना सम्बन्धों को वंचित करने या नजरअन्दाज करने के उद्देश्य से नहीं किया गया है बल्कि ऐसा अध्ययन के तरीके के अनुसार विभिन्न विधाओं के बिना आलोचनात्मक मिश्रण को दूर करने के लिए किया गया है क्योंकि यह विधि के विज्ञान के सार को धूमिल या अस्पष्ट कर देता है और विधि की विषयवस्तु की प्रकृति के अनुसार इस पर निश्चित सीमा को मिटा देता है।

शुद्ध विधि के सिद्धान्त की अन्य आलोचनाएं एवं महत्व

अनिरूद्ध प्रसाद ने अपनी पुस्तक में केल्सन की निम्नलिखित आलोचनायें संगृहीत की है :-

  • (१) प्रो0 राज यह अस्वीकार करते हैं कि शुद्ध विधि के सिद्धान्त ने बेन्थम और ऑस्टिन के प्रमाणवाद को विकसित किया है। उनके अनुसार केल्सन विधि के प्रारम्भ के सिद्धान्त के प्रति ज्यादा वफादार है। विधिक व्यवस्था की पहचान और व्यवस्था में विधि की सदस्यता का अनन्य रूप से निर्धारण इसके सृजन और उद्भव के तथ्य के आधार पर किया गया है। लेकिन एकता का स्रोत एक विधायी निकाय न होकर एक शक्ति-प्रदायी मानक है। मूलमानक सम्प्रभु का स्थान लेता है अन्यथा कुछ परिवर्तित नहीं हुआ है।
  • (२) शुद्ध विधि के सिद्धान्त पर यह आपत्ति उठायी गयी है कि क्या यह वास्तव में सम्भव और वांछनीय है कि विधि के नमूने से सामाजिक और राजनीतिक तत्वों को बहिष्कृत कर दिया जाये? हैराल्ड जे लॉस्की ने इसे ‘‘तर्क में अभ्यास लेकिन वास्तविक जीवन में नहीं’’ (Exercise in logic but not in life) की संज्ञा दी है।
  • (३) केल्सन ने अपने शुद्ध विधि के सिद्धान्त को निर्वचन का सिद्धान्त माना है। इसका तात्पर्य यह है कि यह निरूपण (Description) नहीं है बल्कि नमूना या आदर्श है जिसका कार्य मूल्यपरक है।
  • (४) केल्सन ने विधि को प्रमुखतया उत्पीड़क माना है। यह विधि का बड़ा संकुचित दायरा प्रस्तुत करता है। डायस के अनुसार यह विधि के नियंत्रण (Regulatory) भूमिका को संकुचित करता है।
  • (५) केल्सन ने विधि में अनुशास्ति की भूमिका को अनावश्यक महत्व दे रखा है। इसका परिणाम है कि यह कर्त्तव्य का असंतुलित विश्लेषण प्रस्तुत करता है। ऐसा मात्र इसलिए नहीं है कि एक संविधि बिना आवश्यक रूप से अनुशास्ति उत्पन्न किए कर्त्तव्य अधिरोपित कर सकता है, बल्कि इसलिए भी कि कुछ आचरण अनुशास्ति की दशा का निरूपण बिना कर्त्तव्य के अधीन हुए कर सकते हैं। हैरिस के अनुसार ‘‘कर्त्तव्य की संकल्पना अनुशास्ति की संकल्पना से हटकर अपने पैरों पर खड़ी होनी चाहिए। एक विधि के सिद्धान्त को कर्त्तव्य और अनुशास्ति को अलग-अलग परिभाषित करना चाहिए।
  • (६) अन्तर्राष्ट्रीय विधि केल्सन का सबसे कमजोर बिन्दु माना गया है। केल्सन के शिष्य लाटरपाच्ट ने स्वयं आपत्ति व्यक्त की है कि क्या विधिक मानकों का सोपानात्मक सिद्धान्त प्राकृतिक विधि सिद्धान्तों की मान्यता का आभास नहीं देता है? बहुत से वर्तमान प्राकृतिक विधि के विधिशास्त्री भी प्रकृतिक विधि को आदर्श न मानकर ऐसे सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं जो निश्चयात्मक विधि से उच्च मानक हों। धीरे-धीरे उच्च मानकों को निश्चयात्मक विधि का अंग मान लिया गया है। अतः उनकी व्याख्या केल्सन की व्याख्या से भिन्न नहीं रह जाती है। यद्यपि केल्सन ने प्राकृतिक विधि का विरोध किया है, परन्तु मानकीय व्यवस्था में अन्तर्राष्ट्रीय विधि को राष्ट्रीय विधि से उच्च मानकर केल्सन ने ऐसा आभास दिया है कि ‘‘इस प्रणाली के दृढ़ लौह तर्क के पृष्ठ द्वार (पिछले दरवाजे) से प्राकृतिक विधि का प्रेत प्रवेश कर गया है।’’

    यही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय विधि में मूलमानक और अनुशास्ति की खोज भी राष्ट्रीय विधि की तुलना में अस्वाभाविक प्रतीत होती है। इसका मूलमानक कि राष्ट्रों को अपना व्यवहार इस तरह करना चाहिए कि राज्यों द्वारा स्थापित रूढ़ि से संगत हो बहुत सम्यक् नहीं लगता है और युद्ध और प्रत्युपकार के रूप में अनुशास्ति भी अप्रासंगिक है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुसार युद्ध वैधानिक नहीं रह गया है। ऐलन के अनुसार (Pacta sunt servanda) (संधियों का अनुसरण किया जाना चाहिए) के सिद्धान्त ने प्राकृतिक विधि को स्वीकार किया है। इसी तरह हैंगरस्ट्रोम ने सर्वाच्च मानक की शर्तहीन प्राधिकारिता में प्राकृतिक विचार पद्धति का छिपा तत्व पाया है।
  • (७) शुद्ध विधि का सिद्धान्त व्यवहारिकतः शून्य है। फ्रीडमैन के अनुसार आज के समाज की इतनी जटिल समस्याएं हैं कि विश्लेषणात्मक प्रमाणवाद की विधिक आत्मनिर्भरता सामाजिक न्याय को स्थान दिए बिना इनका सही समाधान नहीं कर सकती है।

डायस के अनुसार केल्सन के शुद्ध विधि के सिद्धान्त का महत्व यह है कि यह प्रमाणवादी विचारधारा का परिमार्जित एवं संस्कारित रूप प्रकट करता है और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में व्याप्त विधि की अन्य विषयों से अनावश्यक मिश्रण करने की परम्परा को झटका देकर विधि की शुद्धता कायम रखने का प्रयास करता है। फ्रीडमैन ने माना कि केल्सन के शुद्ध विधि के सिद्धान्त का प्रमुख गुण उसके द्वारा प्रारम्भिक प्रस्थापना (मूलमानक) है जिसे समुदाय का मूल राजनीतिक सिद्धान्त माना जा सकता है और उससे प्राप्त विधिक सम्बन्धों की सम्पूर्णता के पारस्परिक सम्बन्धों का स्पष्टीकरण है। फ्रीडमैन के अनुसार विधि की प्रगतिशील प्रक्रिया के रूप में संकल्पना बहुत उपयोगी है। इसके द्वारा एक तरफ ग्रे और अमेरिकन यथार्थवादियों के परिणामों को औचित्य मिलता है तो दूसरी तरफ महाद्वीपीय समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों द्वारा दूसरे दृष्टिकोण से निकाले गये परिणामों को औचित्य मिलता है। आधुनिक राजनीतिक और विधिशास्त्रीय दृष्टिकोणों ने न्याय और प्रशासन, भौतिक और विधिक व्यक्तित्व, लोक विधि और प्राइवेट विधि और न्यायाधीशों के सृजनशील और कार्यपालिकीय कार्यों के बीच के सम्बन्धों में सापेक्षता या लचीलापन स्वीकार किया है। यही कारण है कि विभिन्न क्षेत्रों और विभिन्न दृष्टिकोणों के विधिशास्त्रियों- ग्रे, होम्स, इहरलिच, ड्यूगिट, जेनिंग्स और बार्कर ने केल्सन के मूर्तकरण के सिद्धान्त (Theory of concretisation of law or stufon theorie) के समान परिणाम निकाला।

निरपेक्ष सत्य की खोज में लगी हुई विधि विचारधाराओं में छिपी राजनीतिक विचार पद्धति का केल्सन ने जिस निर्ममता के साथ पर्दाफाश किया उसका विधिशास्त्र के पूरे क्षेत्र पर काफी स्वस्थ प्रभाव पड़ा। प्राकृतिक विधि की विचारधारा, अन्तरराराष्ट्रीय विधि की विचारधारा, निगमित व्यक्तित्व का सिद्धान्त, लोक विधि और निजी विधि से सम्बन्धित विचार, शायद ही कोई इसके प्रभाव से अछूता रहा हो। इसने विधि के सिद्धान्त से सम्बन्धित सभी क्षेत्रों में अपनी-अपनी स्थिति पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर दिया।

केल्सन का ध्येय आवश्यक विधिक व्यवस्था की संरचना के तत्वों का इस तरह विश्लेषण करना है कि यह विधिक व्यवस्था के औपचारिक तर्क की बोधगम्य प्रस्तुति का एकमात्र माध्यम प्रतीत हो। कहना न होगा, विभिन्न आलोचनाओं के बावजूद उसके मूल सिद्धान्त कि (1) विधिक नियम मानकों के समकक्ष है और (2) विधिक व्यवस्था इस तरह के नियमों का समूह है, जिनका अर्थ अविरोधाभासयुक्त है, मूलतः दृढ़ प्रतीत होते हैं। पैटन के अनुसार केल्सन ने विधिशास्त्र के क्षेत्र में मौलिक और महत्वपूर्ण योगदान दिया है। केल्सन ने अपनी आलोचनात्मक प्रतिभा से विधिशास्त्र में व्याप्त अनेक भ्रान्तियों को उजागर किया। वर्तमान समय के परस्पर विरोधी सामाजिक संघर्षों में उनकी निष्पक्षता के कारण रूढ़िवादियों ने उन्हें खतरनाक परविर्तनकारी और क्रान्तिकारी प्रतिक्रियावादी घोषित कर दिया।