अफ्रीकी ट्रिपेनोसोमयासिस

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अफ्रीकी ट्रिपेनोसोमयासिस अथवा स्लीपिंग सिकनेस[१] मनुष्यों तथा अन्य पशुओं में होने वाली एक परजीवीजन्य बीमारी है। यह परजीवियों की एक प्रजाति ट्रिपैनोसोमा ब्रुसे के कारण होता है।[२] मनुष्यों को संक्रमित कर सकने वाले परजीवी दो प्रकार के होते हैं, ट्रिपैनोसोमा ब्रुसे गैम्बिएन्स (T.b.g) तथा ट्रिपैनोसोमा ब्रुसे रोडेसिएंस (T.b.r.).[१] T.b.g दर्ज मामलों में 98% से अधिक का कारण बनता है।[१] दोनों प्रकार आमतौर पर एक संक्रमित सीसी मक्खी के काटने से फैलते हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे आम हैं।[१] 

प्रारंभ में, बीमारी के पहले चरण में, बुखार, सिर दर्द, खुजली और जोड़ों में दर्द होता है।[१] यह काटने के एक से तीन सप्ताह के अन्दर शुरू होता है।[३] कुछ सप्ताहों अथवा महीनों के अन्दर दूसरा चरण प्रारंभ होता है जिसमें मरीज़ भ्रम, ख़राब समन्वय, सुन्न होना तथा सोने में कठिनाई महसूस करता है।[१][३] रोग परीक्षण रक्त स्मीयर में अथवा लिम्फ नोड के तरल पदार्थ में परजीवी खोजने के जरिए किया जाता है।[३] अक्सर पहले और दूसरे चरण की बीमारी के बीच अंतर बताने के लिए लम्बर पंक्चर की आवश्यकता होती है।[३]

गंभीर बीमारी की रोकथाम के लिए जोखिमग्रस्त जनसंख्या की स्क्रीनिंग के साथ ही T.b.g. के लिए रक्त परीक्षण करना शामिल है।[१] रोग का निदान अपेक्षाकृत सरल है जबकि रोग का पता जल्दी चल गया हो तथा स्नायविक लक्षण प्रकट न हुए हों।[१] रोग के पहले चरण का उपचार पेंटामाईडीन अथवा स्यूरामिन दवाओं से किया जाता है।[१] रोग के दुसरे चरण के उपचार के लिए एफ्लोनाईथीन अथवा T.b.g. के लिए नाईफर्टिमॉक्स तथा एफ्लोनाईथीन के संयोजन की आवश्यकता होती है।[३] हालाँकि मेलार्सोप्रोल दोनों के लिए कारगर है, फिर भी इसे आमतौर पर केवल T.b.r. के लिए प्रयोग किया जाता है जिसका कारण इसके कुछ गंभीर साइड इफेक्ट हैं।[१]

उप-सहारा अफ्रीका के कुछ क्षेत्रों में यह बीमारी नियमित रूप से होती है, जिसमें जोखिम-ग्रस्त जनसँख्या 36 देशों में 70 मिलियन के लगभग है।[४] 2010 में इस बीमारी के कारण लगभग 9,000 व्यक्तियों की मृत्यु हुई, जबकि 1990 में इनकी संख्या लगभग 34,000 थी।[५] एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में लगभग 30,000 लोग इससे संक्रमित हैं जिसमें 2012 में हुए 7000 नए मामले भी शामिल हैं।[१] इन मामलों में से 80% से अधिक कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य में हैं।[१] हाल ही के इतिहास में इस बीमारी के तीन बड़े प्रकोप हुए हैं: एक 1896 से 1906 के बीच मुख्यतः युगांडा तथा काँगो बेसिन में तथा दो 1920 एवं 1970 में अनेक अफ्रीकी देशों में।[१] अन्य पशु, जैसे गाय, इस बीमारी के वाहक बन सकते हैं तथा इससे संक्रमित हो सकते हैं।[१]

संदर्भ