कुब्जिका

भारतपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

कुब्जिका, कुब्जिकामत की मुख्य देवी हैं। इन्हें वक्रेश्वरी, वक्रिका, और छिञिनी भी कहते हैं। १२वीं शताब्दी में कुब्जिका की पूजा अपने चरम पर थी। कौल तंत्र में अब भी इनकी पूजा होती है।

तरुणरविनिभास्यां सिंहपृष्ठोपविष्टाम् कुचभरनमिताङ्गीं सर्वभूषाभिरामाम्। अभयवरदहस्तामेकवक्त्रां त्रिनेत्रां मदमुदितमुखाब्जां कुब्जिकां चिन्तयामि ॥ भगवति कुब्जिका पश्चिमाम्नाय की अधिष्ठात्री देवी हैं।चिंचिणी,कुलालिका,कुजा,वक्त्रिका,क्रमेशी,खंजिणी, त्वरिता,मातङ्गी इत्यादि देवी के ही अन्य नाम हैं । भगवान परशिव ने अपने पश्चिमस्थ सद्योजातवक्त्र से सर्वप्रथम कुब्जिका उपासना का उपदेश किया। जैसा कि परातन्त्र में कहा गया है

शतसाहस्रसंहिता के भाष्य में कहा गया है कि कुब्ज होकर जो सर्वत्र संकुचित रूप से व्याप्त हो जाती हैं उसे कुब्जिका कहते हैं।

कुब्जिका कथम्? कुब्जो भूत्वा सर्वत्र प्रवेशं आयाति । तद्वत् । सा सर्वत्र सङ्कोचरूपत्वेन व्याप्तिं करोति तदा कुब्जिका ।

गुप्तकाल (५ वीं शताब्दी ई ) से ९वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक संकलित अग्निपुराण, मत्स्यपुराण तथा गरुडपुराण में देवी कुब्जिका सम्बन्धी विवरण प्राप्त होता हैं। इस से इतना तो सिद्ध हो ही जाता है कि कुब्जिकाक्रम प्राचीन हैं। १०वीं-१२वीं शताब्दी तक उत्तरभारत में कुब्जिका उपासना अपने चरम पर थी। १५वीं-१६वीं शताब्दी के अन्त तक यह गुप्त हो गईं। अभिनवगुप्त जी अपने तन्त्रालोक में देवि कुब्जिका सम्बन्धी कुछ श्लोक उद्धृत करते हैं। (दृष्टव्य- तंत्रालोक २८ वां अध्याय जिसमें कुलयाग का वर्णन है, खंडचक्रविचार प्रकरण )।

भारत में अभी भी कुछ मुठ्ठीभर साधक स्वतंत्रक्रम से तथा अन्य साधकगण श्रीविद्या के आम्नायक्रम में कुब्जिका उपासना करते हैं। नेपाल में कुब्जिका उपासना के साक्ष्य ९००-१६०० ई तक के मिलते हैं। मन्थानभैरवतंत्र, शतसाहस्रसंहिता, कुब्जिकामततंत्र,अम्बासंहिता,श्रीमततंत्र आदि ग्रन्थों के हस्तलेख मात्र नेपाल से प्राप्त होते हैं। नेपाल में पश्चिमाम्नाय कुब्जिकाक्रमपरम्परा अभी तक जीवित हैं।

बाहरी कड़ियाँ