ग्रह योग

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साँचा:हिन्दू धर्म सूचना मंजूषा ज्योतिष और काल गणना के अनुसार हिन्दू धर्म में विभिन्न योग वर्णित है

ये इस प्रकार हैं:

अकस्मात् धन प्राप्ति योग

(क) यदि द्वितीयेश और चतुर्थेश शुभ ग्रह (बुध-शुक्र) की राशि में शुभग्रहों से युत या दृष्ट हो। (ख) पंचम भाव में चन्द्रमा पर शुक्र की पूर्ण दृष्टि हो। (ग) 1, 2, 11 वें भाव के स्वामियों में लग्न का स्वामी दूसरे घर में, दूसरे का स्वामी ग्यारहवें में तथा ग्यारहवें का स्वामी लग्न में हो। (घ) एकादशेश और द्वितीयेश चतुर्थस्थ होंऔर चतुर्थेश शुभग्रह की राशि में शुभयुत या दृष्ट। (ङ) धनेश अष्टम भाव में हो। (च) लग्न का स्वामी धनस्थान में हो, लाभ-स्थान में हो और लाभेश लग्न में हो। (जातक पारिजात) (छ) लग्नेश शुभग्रह हो और धन स्थान में स्थित हो या धनेश आठवें स्थान में हो। (ज) यदि पंचम स्थान में शुक्र से दृष्ट चन्द्रमा हो। (झ) यदि धन भाव का स्वामी शनि (धनु, मकर लग्न) 4, 8 या 12वें भाव में हो तथा बुध सप्तम भाव में स्वगृही होकर बैठा हो।

अकस्मात् धन नाश

(क) दूसरे भाव में कर्क का चन्द्रमा शनि के नक्षत्र पर स्थित हो और अष्टम भाव में स्वगृही शनि चन्द्र के नक्षत्र पर स्थित हो, दोनों की परस्पर पूर्ण दृष्टि होने से, (ख) शनि की महादशा में चन्द्रमा का अन्तर आने से धन नष्ट हो, या (ग) भाग्येश और दशमेश व्यय भाव में हों। (घ) यदि धन भाव में कर्क का चन्द्रमा (मिथुन लग्न) हो तथा अष्टम भाव में शनि स्वगृही हो तो परस्पर महादशा अन्तर्दशा में जातक दिवालिया हो जाता है।

अखण्ड साम्राज्य योग

द्वितीयेश, नवमेश और एकादशेश से यह योग बनता है। जब चन्द्रमा केन्द्र में हो व लग्न में हो, लेकिन साथ-साथ गुरू पंचम व एकादश भाव का स्वामी हो। यह योग बहुत शुभ होता है- लक्ष्मी, जायदाद, स्वास्थ्य और दीर्घायु के लिये विशेष तौर पर।

अखंड धनयोग

लग्न से पांची राशि धनु या मीन हो तथा एकादश भाव में चन्द्र या मंगल हो तो अखण्ड धनयोग होता है। इस योग में उत्पन्न जातक निःसन्देह लखपति बनता है। लग्न से सुर्य ६ और ११ भाव में अत्यधिक मात्रा में धन योग बनाता है

अगस्त्य

(पर्यायवाची - अगस्त, अगस्ति, अगस्ती, अग्निमारूति और्वशेय, कलशिसुत, कुम्भज, कुंभजात, कुम्भयोनि, कुम्भसंभव, कूटज, घटज, घटयोनि, घटसंभव, घटोद्भव, पीताब्धि, मैत्रावरूण, याम्य, विंध्यकूट, समुद्रचुलुक, सिन्धुशासनि।) (क) ‘कुम्भज’ एक प्रसिद्ध ऋषि का नाम। (£) एक नक्षत्र का नाम (Canopus)।

‘मिथुन राशि’ के दक्षिण में 70 अंश की दूरी पर ‘‘नौका मण्डल’’ (Argo Navis) दिखाई देता है। इसका आकार बड़ा विस्तृत है। यह 40 अंश दक्षिण अक्षांश से 70 अंश दक्षिण अक्षांश तथा 85 अंश देशान्तर तक फैला है। इसे ‘‘नौका पुंज’’ (Argo या Argus) भी कहते हैं। इसका सबसे चमकीला सितारा ‘अगस्त्य’ (Canopus) है जो 75 अंश देशान्तर तथा 53 अंश दक्षिणी अक्षांश के पास स्थित है। यह प्रथम श्रेणी का सितारा है जो सूर्य से 1900 गुना तेजस्वी है तथा पृथ्वी से 100 प्रकाश वर्ष दूर है। भारतीय ज्योतिषियों को प्राचीन काल से इसका ज्ञान था। महाभारत में नहुष को नाग (1:35:9) कहा है, जो बादलों के अर्थ में आया है। वेद में बादल का नाम ‘अहि’ है। वन पर्व में ‘अगस्त्येन ततोभ्युक्तो ध्वंस सर्पेति वै रूषा’ अगस्त्य नक्षत्र (तारा) के उदय होते ही सर्परूपी जल का नाश हो जाता है। यह सितारा अक्टूबर मास में सूर्यास्त के समय पूर्व में उदय होता है। भारत में यह समय वर्षा ऋतु की समाप्ति का है अतः इसका उदय होना वर्षा के अन्त का सूचक है। तुलसी दास जी ने रामचरित मानस में भी लिखा है- ‘उदय अगस्त्य पंथ जल शोषा, जिमि लोभहिं शोषे संतोषा।’ ऋग्वेद में उसे सात किरणों को मारने वाला कहा है। इसका भारतीय वैज्ञानिक नाम ‘क-नौत्तल’ तथा पाश्चात्य वैज्ञानिक नाम Alpha Majoris है। पुराण की एक कथा के अनुसार अगस्त्य कुम्भ-योनिज कहलाते हैं। अगस्त्य ने विदर्भ की राजकन्या लोपामुद्रा से विवाह किया था। विन्ध्य पर्वत गर्व के कारण बढ़ने लगा। अगस्त्य विन्ध्य पर पैर रखकर दक्षिण की तरफ गये और कहा ‘जब तक मै नहीं आऊँ तब तक नहीं बढ़ना’। अगस्त्य ने कालकेय राक्षस को समुद्र का पानी पीकर सुखाकर मार दिया। वे दक्षिण में रहे। विन्ध्य का बढ़ना भी रूक गया।

अर्गला

अर्गला भाव या ग्रह के फल को निश्चित करती है अर्थात् मजबूती से संभालती है। अतः भाव व ग्रह के फल को विगलित होने, रिसने से बचाने वाली ग्रह स्थिति अर्गला कहलाती है। जिस भाव या ग्रह की अर्गला देखनी हो, उससे 2, 4, 11 भावों में यदि ग्रह हो तो अर्गलाकारक होते हैं। इन स्थानों के क्रमशः 12, 10, 3 अर्गला बाधक स्थान होते हैं। यदि बाधक ग्रह, अर्गलाकारक से निर्बल हों या कम संख्या में हो तो वे बाधक स्थान होते हैं। लेकिन तृतीय में तीन पापग्रह हों तो यह कभी भी बाधित नहीं होती तथा इसे विपरीत अर्गला कहते हैं। इस तृतीय भाव वाली अर्गला से भी फल पुष्ट होता है। पंचम स्थान भी अर्गला स्थान है तथा नवम स्थान इसका बाधा स्थान है। राहु व केतु के लिये बाधा स्थान को अर्गला स्थान व अर्गला स्थान को बाधा स्थान समझना चाहिये।

अग्नि

(क) लग्नेश, पंचमेश और नवमेश के प्रभाव से अग्नि का भय रहता है। (ख) अग्नि के ग्रहों में सूर्य, मंगल और केतु हैं। (ग) मेष, सिंह तथा धनु अग्नि तत्त्व राशियां हैं। (घ) षष्टयंश वर्गान्तर्गत दसवां षष्टयंश अग्नि है।

अतिचर वक्र

मंगल, बुध, गुरू और शनि अतिचर और वक्र होते हैं। सभी ग्रह नियमित रूप से सूर्य की परिक्रमा घड़ी की उल्टी दिशा एक निश्चित गति में करते हैं, किन्तु इनकी गति सम नहीं है। सूर्य से दूरी का इनकी गति पर प्रभाव पड़ता है, जिससे कभी इनकी गति तेज होती है तथा कभी धीमी। दूसरा प्रभाव पृथ्वी का पड़ता है। हम पृथ्वी के सापेक्ष इनकी गतियों को देखते हैं जो स्वयं सूर्य की परिक्रमा कर रहा है, इस कारण जब दोनों विपरीत दिशा में होते हैं तो ये तीव्र गति से भागते दिखाई देते हैं तथा सूर्य के एक ही ओर होने पर पृथ्वी आगे निकल जाती है, जिससे सितारों के सापेक्ष में पूर्व की ओर जाते हुए भी पश्चिम में जाते दिखाई देते हैं। अतः यह गति ‘वक्र गति’ (Retrograde Motion) कहलाती है। वस्तुतः कोई भी ग्रह ‘वक्री’ (उल्टा नहीं जाता है) नहीं होता है, किन्तु पृथ्वी की गति के कारण उल्टा जाता दिखाई देता है। इसे ‘आभासी गति’(Apparent Motion) कहते हैं। अन्य समय में जब ये ग्रह सितारों के मध्य पश्चिम से पूर्व की ओर जाते दिखाई देते हैं तो इनकी गति ‘मार्गी गति’ (Direct Motion) कहलाती है। इस कारण से भारतीय ज्योतिषियों ने इस आभासी गति के अनुसार इन ग्रहों की आठ प्रकार की गतियाँ निर्धारित की है - वक्र, अनुवक्र, विकला, शीघ्र, शीघ्रतर, मन्द, मन्दतर तथा समासम।

अथर्वण ज्योतिष

अथर्व ज्योतिष में नक्षत्र ज्योतिष को अन्य रूप से दर्शाया गया है। इसमें फलित ज्योतिष की अनेक महत्त्वपूर्ण बातें हैं। ऋक्-ज्योतिष, यजुर्वेद-ज्योतिष तथा अथर्व-ज्योतिष में से वेदांग ज्योतिष का स्वतन्त्र ग्रन्थ यही कहा जा सकता है। इसमें 162 श्लोक हैं। वेदांग ज्योतिष का काल ईसा पूर्व 501 वर्ष से 500 तक माना जाता है। विषय और भाषा की दृष्टि से इसका रचनाकाल उक्त दोनों ग्रन्थों से अर्वाचीन है। इसमें तिथि, नक्षत्र, करण, योग, तारा और चन्द्रमा के बलाबल का सुन्दर निरूपण किया गया है। अथर्व-ज्योतिष की रचना के समय ज्योतिषशास्त्र का विचार सूक्ष्म दृष्टि से होने लग गया था। इस समय भारत वर्ष में वारों का भी प्रचार हो गया था तथा वाराधिपति भी प्रचलित हो गये थे।:

आदित्यः सोमो भौमश्च तथा बुधबृहस्पतयो। भार्गवः शनैश्चरश्चैव एते सप्त दिनाधिपाः।। 93।।

इसी प्रकार इसमें जातक के जन्म नक्षत्र को लेकर सुन्दर ढंग से फल बतलाया गया है। तीन-तीन नक्षत्रों का एक-एक वर्ग स्थापित कर फल बताया है: 1 जन्म नक्षत्र 10 कर्म नक्षत्र 19 आधान नक्षत्र 2 संपत्कर नक्षत्र 11 संपत्कर नक्षत्र 20 संपत्कर नक्षत्र 3 विपत्कर नक्षत्र 12 विपत्कर नक्षत्र 21 विपत्कर नक्षत्र 4 क्षेमकर नक्षत्र 13 क्षेमकर नक्षत्र 22 क्षेमकर नक्षत्र 5 प्रत्वर नक्षत्र 14 प्रत्वर नक्षत्र 23 प्रत्वर नक्षत्र 6 साधक नक्षत्र 15 साधक नक्षत्र 24 साधक नक्षत्र 7 निधन नक्षत्र 16 निधन नक्षत्र 25 निधन नक्षत्र 8 मित्र नक्षत्र 17 मित्र नक्षत्र 26 मित्र नक्षत्र 9 परम मित्र नक्षत्र 18 परम मित्र नक्षत्र 27 परम मित्र नक्षत्र उपर्युक्त नक्षत्रों का वर्गीकरण, जिसे तारा कहा गया है, आजतक इसी प्रकार का चला आ रहा है। यों तो जातक ग्रन्थों के फलादेश में बहुत संशोधन और परिवर्धन हुए हैं, किन्तु तारा का फलादेश यथावत् रह गया है। इस छोटे से ग्रन्थ में ग्रह-उल्का, विद्युत, भुकम्प, दिग्दाह आदि का फल भी संक्षेप में लिखा है।

अदीठ

बारहवें भाव में शनि और केतु के योग से व शनि और मंगल के योग से अदीठ (कार्बकल) ट्यूमर होता है।

अदृश्य चक्रार्ध

लग्न स्पष्ट से 2, 3, 4, 5, 6 तथा सप्तम भाव स्पष्ट तक का भाग अदृश्य चक्रार्द्ध कहलाता है।

अधिक मास

पुरातन काल से ही भारत में ‘सौर वर्ष’ तथा ‘चन्द्र वर्ष’ प्रचलित हैं। इनमें एक का ऋग्वेद तथा दूसरे का अथर्ववेद में भी वर्णन आया है। सौर वर्ष से ऋतुओं का ज्ञान होता है। चन्द्र तिथियों, मासों से हमारे अधिकतर पर्व व त्यौहार मनाये जाते हैं। इस कारण हमारे पूर्वजों ने इन दोनों का समन्वय कर एक वर्ष बनाया जिसे चंद्र-सौर वर्ष कहते हैं। मगर हर दो या तीन वर्षों में एक मास बढ़ा दिया जाता है, जिसे ‘मलमास’, ‘पुरूषोत्तममास’ या ‘अधिकमास’ कहते हैं, उस चन्द्र वर्ष में 13 चन्द्रमास होते हैं। दोनों वर्षों (चन्द्र व सौर वर्ष) का समन्वय करने के लिये नियम बनाया गया कि जब एक सौर मास में दो बार अमावस्या का अन्त होता हो, तब उस मास के नाम के दो चन्द्र मास हो जाते हैं और वह चंद्र-सौर वर्ष 13 चंद्रमास का हो जाता है। सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाना संक्रान्ति कहलाता है। इसे ‘सौर मास’ (Solar Month) कहते हैं। राशियाँ 12 है, अतः सौर वर्ष में भी 12 मास होते हैं, जिसका मान 365.2422 दिन है। चंद्र वर्ष 354.372 दिन का होता है। इनमें लगभग 11 दिन का अन्तर है। सामान्यतया 32 मास 16 दिन 4 घड़ी बीतने पर एक मास का अन्तर आ जाता है। इस प्रकार जब दो पक्ष में संक्रान्ति नहीं होती तो उसे अधिक मास कहते हैं। एक ही नाम के दो मासों के बीच का माह (2 पक्ष) शुद्ध होता है। पहला कृष्ण पक्ष तथा अन्तिम शुक्ल पक्ष ’अधिक। वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद तथा आश्विन अधिमास हो सकते हैं।

मैटोनिक चक्र

मिटन ने 433 ई.पू. में देखा कि 235 चन्द्रमास और 19 सौर वर्ष अर्थात् 19*12 = 228 सौर मासों में समय लगभग समान होता है - इनमें लगभग 1 घंटे का ही अन्तर होता है। 19 सौर वर्ष = 228 सौर मास = 19 * 365.25 त्र 6939.75 235 चंद्र मास = 235 * 29.531 = 6939.785 इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक19 वर्ष में 228 सौर मास और लगभग 235 चंद्र मास होते हैं अर्थात् 7 चंद्र मास अधिक होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक 19 चन्द्र-सौर वर्षों में 7 बार अधिकमास करने होते हैं।

अधमादि योग

यदि सूर्य से चन्द्रमा केन्द्र में हो तो जातक की धार्मिक शिक्षा, ज्ञान्, बुद्धि और धन नीच प्रकार का होता है। उसी प्रकार यदि सूर्य से चन्द्रमा पणफर अर्थात् 2, 5, 8 और 11 स्थानगत हो तो ऊपर लिखे हुए गुणों में जातक साधारण प्रकार का होता है। पुनः यदि सूर्य से चन्द्रमा आपोक्लिम अर्थात् 3, 6, 9 और 12 में हो तो जातक में उपर्युक्त गुणों की प्रखरता होती है। यदि चन्द्रमा अपने नवांश में हो या मित्र-गृही हो अथवा उस पर बृहस्पति या शुक्र की दृष्टि पड़ती हो तो जातक धनी और सुखी होता है। मतान्तर से बृहस्पति से दृष्ट होने पर धनी तथा शुक्र से दृष्ट होने पर सुखी होता है। यह भी कहा गया है कि यदि चन्द्रमा पर किसी ग्रह की दृष्टि नहीं पड़ती हो तो जातक एकांत-प्रिय होता है। ऐसे जातक के लिये धनोपार्जन में कठिनाईयां होती है और उसके सभी कार्यों में विघ्न-बाधायें हुआ करती है। यदि चन्द्रमा पर किसी ग्रह की दृष्टि न हो और दशम स्थान में भी कोई ग्रह न हो तो कठिनाइयां असह्य हो जाती है।

अधिक व्ययी योग

कारकेशो व्ययं स्वस्मात् लग्नेशो लग्नतो व्ययम्। वीक्षते चेत् तछा बालो व्ययशीलो भवेद्ध्रुवम्।। (बृहत्पाराशरहोराशास्त्र, अ.38, श्लो.14) आत्मकारक ग्रह जिस राशि में हो, उस राशि का स्वामी यदि कारक से द्वादश को देखे तो जातक खर्चीले स्वभाव का होता है।

अधियोग

वराहमिहीर के मतानुसार यदि जन्म-स्थित चन्द्रमा अर्थात् चन्द्र-लग्न से जब बृहस्पति, शुक्र एवं बुध षष्ठ, सप्तम एवं अष्टम गत हो तो वैसे स्थान में ‘अधियोग’ होता है। परन्तु अन्यान्य ऋषियों का यह भी कथन है कि जन्म-लग्न से यदि बृहस्पति, शुक्र एवं बुध षष्ठ, सप्तम एवं अष्टम गत हो तो भी ‘अधियोग’ होता है। किसी किसी ऋषि ने इसका नाम ‘अध्यक्ष-योग’ भी कहा है। एक विद्वान् के अनुसार ‘लग्न-अधियोग’ उसे कहते हैं, जब लग्न से 6, 7, 8 स्थान में शुभग्रह बैठे हों, वे न तो पाप से युक्त हों न द्रष्ट हो और चतुर्थ स्थान में पापग्रह न हो। मतान्तर से यह भी उपलब्ध होता है कि चन्द्र-लग्न एवं जन्म-लग्न से 6, 7, 8 स्थान में यदि शुभग्रह हो तो अधियोग होता है। यदि पापग्रह बैठे हो तो ‘पाप-अधियोग’ और यदि ऊपर लिखे हुए शुभग्रहों के साथ पापग्रह भी हो तो ‘मिश्र-अधियोग’ होता है। इस कारण ‘अधियोग’ छः प्रकार के होंगे। अर्थात् लग्न से तीन प्रकार के और चन्द्र लग्न से तीन प्रकार के। यहाँ ध्यातव्य है कि बृहस्पति, शुक्र एवं बुध 6, 7, 8 स्थानों में एक-एक हो अथवा दो ही किसी स्थान में हो अथवा तीनों किसी एक ही स्थान में हो तो भी अधियोग होगा। इस अधियोग का फल यह है कि ऐसा जातक ‘शुभ-अधियोग’ के होने से ग्रहों के बलाबल के तारतम्यानुसार किसी राज-सिंहासन का अधिकारी होता है। निरोग, दीर्घजीवी, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला तथा सांसारिक सुखों से युक्त होता है। ‘मिश्र-अधियोग’ होने पर जातक मन्त्री, काय्र्याध्यक्ष, नायक एवं उच्च पदाधिकारी होता है। ‘पाप-अधियोग’ होने पर युद्ध विभाग का नायक एवं पदाधिकारी अथवा पुलिस विभाग का अधिकारी होता है। ‘लग्न अधियोग का फल इस प्रकार है - ऐसा जातक अनेक प्रकार के शास्त्रों अर्थात् विज्ञानादि विषयक पुस्तकों का लेखक होता है। नाना प्रकार की विद्याओं का जानने वाला, सेना का नायक, निष्कपट, महात्मा एवं संसार में यश और गुण से सुख पाने वाला होता है।

अनफा योग

चन्द्रमा से द्वादशस्थ कोई ग्रह हो, किन्तु द्वितीय स्थान ग्रह शुन्य हो तो उसे ‘अनफा योग’ कहते हैं। यहाँ सूर्य को छोड़ कर अन्य ग्रहों की उपस्थिति अपेक्षित है। ‘यवन’ के कथनानुसार यदि चन्द्रमा से दशम में सूर्यातिरिक्त कोई ग्रह हो तो ‘अनफा योग होता है। ‘अनफा’ योग वाला जातक शीलवान्, कीर्त्ति-ख्याति वाला, सांसारिक विषयों से सुखी, सन्तोषी, शरीर से पुष्ट और स्वस्थ होता है। अनफा योग में चन्द्रमा से द्वादस्थ ग्रहों का फलादेश यदि चन्द्रमा से मंगल द्वादस्थ हो तो जातक रणोत्सुक, क्रोधी, मानी और डाकुओं का सरदार होता है। परन्तु उसका रूप आकर्षक होता है। यदि बुध हो तो वह चित्रकारी, गान-विद्या का व्याख्याता, विद्वान् वक्ता, यशस्वी, सुन्दर और राजा से सम्मानित होता है। यदि बृहस्पति हो तो जातक अत्यन्त मेधावी, गम्भीर, गुणज्ञ, शुद्ध व्यावहारिक, धनी एवं मानी और राजा से सम्मानित होता है। यदि शुक्र हो तो जातक स्त्रियों के लिये चित्ताकर्षक होता है। अत्यन्त बुद्धिमान्, धन से सम्पन्न और बहुतेरे पशुओं का स्वामी भी होता है। शनि हो तो जातक आजानु-बाहु, गुणवान्, नेता, पश्वादियों का स्वामी होता है और ऐसे जातक की वाणी सर्व-ग्रहिणी होती हैं परन्तु इसका विवाह किसी एक दुष्टा स्त्री से होता है।

अनुपचाय स्थान

लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, अष्टम, नवम तथा द्वादश भावों को ‘अनुपचाय’ या ‘पीड़र्क्ष’ कहते हैं।

अंतर्ग्रह या भीतरी ग्रह

जिन ग्रहो की कक्षा पृथ्वी की कक्षा से छोटी और सूर्य व पृथ्वी की कक्षा के मध्य में है उन्हें आन्तरिक या अंतर्ग्रह कहते हैं। बुध, शुक्र और पृथ्वी ये आन्तरिक ग्रह हैं। (क) अन्तर्युति या निकृष्ट युति जब कोई आन्तरिक ग्रह (बुध और शुक्र) सूर्य और पृथ्वी के मध्य में हो अर्थात् ग्रह के एक ओर सूर्य और दूसरी ओर पृथ्वी हो तथा सूर्य व ग्रह दोनों के भोगांश समान हो, वह उस ग्रह की अन्तर्युति होती है। (ख) अन्तर्ग्रह का संयुति काल कोई ग्रह एक प्रकार की युति (अन्तर्युति) से चलकर पुनः उसी प्रकार की युति तक आने में जितना समय लेता है, वह उस ग्रह का संयुति-काल कहलाता है। बुध का संयुति काल हम इस प्रकार समझ सकते हैं - बुध का नक्षत्र काल 87.969 दिन है और पृथ्वी का 365.256 दिन। बुध पृथ्वी की अपेक्षा काफी तेज कोणीय गति से चलता है। निम्न आकृति देखें - इस आकृति के मध्य में सूर्य है। इसके समीप वाला वृत्त बुध की कक्षा उससे बाहर वाला (मध्यवृत्त) पृथ्वी की कक्षा और सबसे बाहर वाला वृत्त भचक्र (राशिचक्र) है। तीर की दिशा में बुध और पृथ्वी परिक्रमा कर रहे हैं और भचक्र के भोगांश बढ़ रहे हैं। जब पृथ्वी का केन्द्र क पर है, उस समय बुध का केन्द्र क1 पर है और सूर्य का केन्द्र, बुध का केन्द्र व पृथ्वी का केन्द्र एक रेखा में है। इस समय बुध की अन्तर्युति हो रही है। पृथ्वी और बुध दोनों अपने-अपने पथ पर भ्रमण कर रहे हैं। बुध 87.969 दिन बाद एक चक्र पूरा कर पुनः क1 पर आया, किन्तु पृथ्वी अपनी धीमी गति से भ्रमण करती हुई बिन्दु क से आगे चली गई। अब बुध और आगे चलता हुआ बिन्दु ख1 पर पहुंचता है जहां बिन्दु ख पर पृथ्वी होती है। पुनः ख, ख1 और सूर्य एक रेखा में आये अर्थात् बुध और सूर्य के भोगांश समान हुए अर्थात् बुध की दोबारा अन्तर्युति हुई। जितना समय बुध ने क1 से चलकर एक चक्र पूरा कर और आगे चलकर ख1 तक आने में लिया वह बुध का संयुति-काल हुआ। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जितना समय पृथ्वी ने क से ख तक चलने में लिया वह बुध का संयुति काल है। बुध का संयुति काल 115.88 पृथ्वी दिन है तथा शुक्र का 583.92 पृथ्वी दिन है।

अंर्तग्रहों की कलाएं

अंर्तग्रहों की चन्द्रमा की तरह कलाएं होती है।

अन्र्तग्रहों का वक्री होना

अंर्तग्रह तब वक्री होते हैं जब पृथ्वी के समीप होते हैं।

अन्र्तग्रहों की चमक या कांतिमान (Magnitude of Brightness)

ग्रहों का परावर्तित प्रकाश जितना पृथ्वी पर आता है, वह उस ग्रह की चमक कहलाती है। यह प्रकाश दो चीजों पर निर्भर करता है। (1) ग्रह की पृथ्वी से दूरी पर। जैस-जैसे ग्रह पृथ्वी के पास आता जाता है, चमक अधिक होती जाती है और दूर जाने पर कम। क्योंकि प्रकाश की चमक की तीव्रता, दूरी के वर्ग के विलोमानुपाती (Inversely Propotional) में होती है। जैसे कोई प्रकाश 3 गुनी दूरी पर हो तो उसका 9वां हिस्सा प्रकाश तीव्रता होगी। (2) ग्रहों का कितना प्रकाश वाला भाग पृथ्वी की ओर है। अंतर्ग्रहों में हम शुक्र का उदाहरण लेते हें। जब वह बहिर्युति पर होता है, तब शुक्र पृथ्वी से अधिकतम दूरी पर होता है और अंतर्युति में पृथ्वी के पास होता है। बहिर्युति में उसका बिम्ब 11’’ का होता है जबकि अंतर्युति में 66’’ का अर्थात् 6 गुना बड़ा। अंतर्युति के पास में यद्यपि शुक्र का बहुत पतला-सा भाग दिखाई देता है, किन्तु यह पास होने के कारण बहिर्युति वाले पूर्ण दिखाई देने वाले शुक्र से कहीं अधिक प्रकाश परावर्तित करता है। शुक्र जब सूर्य से पृथ्वी पर 400 का प्रसारकोण (Angle of Elongation) बनाता है, तब अधिकतम चमकदार दिखाई देता है। अंर्तग्रहों का प्रभाव अंतर्ग्रह जब वक्री होते हैं (पृथ्वी के समीप) तब उनकी आकर्षण शक्ति, विद्युत-चुम्बकीय शक्ति आदि अधिक होती है, ज्यों-ज्यों पृथ्वी से दूर जाते हैं, कम होती जाती है। परावर्तित प्रकाश निर्धारित प्रसार कोण के बाद कम होता जाता है और जब अंतर्युति होती है तब बिल्कुल नहीं आता। इस कारण इनका प्रभाव ग्रह के उच्च होने जितना हो जाता है (प्रकाश को छोड़ कर)।

अन्नप्राशन

गर्भाधान से सातवाँ संस्कार अन्नप्राशन जन्म से लेकर एक वर्ष के भीतर सम्पन्न किया जाता है। शिशु को प्रथम बार अन्न की बनी वस्तु खिलाने अर्थात् ठोस अन्न का आहार प्रथम बार देने का नाम ‘अन्नप्राशन’ है। प्राचीन परम्परानुसार षष्ठ मास से ऊपर सम मास (6,8,10,12…..) में पुत्र का तथा पाँचवें मास से आगे विषम मास (5,7,9,11) में यथावसर कन्या का अन्न प्राशन होना चाहिये। उसमें भी बालक को चन्द्रबल शुभ होने पर शुक्ल पक्ष रहे, यह आवश्यक है। इस संस्कार के लिये शुक्ल पक्ष लेना चाहिये। मंगल और शनिवार इस कार्य के लिये वर्जित है। तिथियाँ रिक्ता (4,9,14), नन्दा (1,6,11), पर्व (15,30), द्वादशी व अष्टमी/सप्तमी को छोड़कर शेष में से कोई लेनी चाहिये। नक्षत्र मृदु, लघु, चर, स्थिर संज्ञक हो। तीनों पूर्वा, आश्लेषा, आर्द्रा, शतमिषा और भरणी वर्जित है। मतान्तर से अनुराधा, शतमिषा, स्वाती और जन्म-नक्षत्र को शुभ नहीं बतलाया गया है। मीन, मेष, वृश्चिक लग्न को व जन्म लग्न या राशि से अष्टम लग्न व नवांश को छोड़कर शेष लग्नों (वृष, कन्या, मिथुन लग्न श्रेष्ठ माने गये हैं) में लग्न शुद्धि देखकर शुभ वारों में अन्नप्राशन करायें। नक्षत्र और तिथियों में मतान्तर भी पाया गया है। इस संस्कार में दशम भाव में भी कोई ग्रह लग्न कुण्डली में न हो तथा न ही उस पर कोई कुदृष्टि हो। सूर्य होने पर मृगी, मंगल होने पर दुबलापन तथा शनि होने पर पक्षाघात की सम्भावना रहती है। उपर्युक्त शुभ मुहूत्र्त में देवताओं का पूजन करने के बाद माता-पिता या दादा-दादी सोने या चाँदी की शलाका से या छोटे चम्मच से निम्नलिखित मंत्र से बालक को खीर आदि पुष्टिकर अन्न चटावें।

‘‘शिवो ते स्तां ब्रीहियवावबलासावदोमधौ। एतौ यक्ष्मं वि वाधेते, एतौ मुच्चतो अहंसः।।’’ (अथर्ववेद 8/2/18)

‘हे बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिये बलदायक तथा पुष्टिकारक बने, ये अन्न तुम्हारे लिये अन्न न होकर देवान्न हो तथा तुम्हें सभी रोगों एवं पाप कर्मों से मुक्त रखे।’ प्रयोग पारिजात में कहा गया है -

दशमस्थानगान् सर्वान् वर्जयेन्मतिमान्नरः। अन्नप्राशनकृत्येषु मृत्युक्लेशभयावहान्।।

अन्नप्राशन के समय सिर की टोपी हटा लें तथा दक्षिण की ओर मुख न करवायें। शास्त्र से लोक परम्परा बलवती होती है। आजकल डाक्टर की सलाह पर चौथे मास में ही अन्न खिलाना प्रारम्भ कर देते हैं। तथापि अन्य मुहूर्त का विचार अवश्य करना चाहिये। भोज्य पदार्थ का भोक्ता के शरीर, मन एवं आत्मा पर पूर्ण प्रभाव होता है। यदि भोज्य तामसिक है, अथवा पाप-दोषयुक्त है, तो व्यक्ति की आत्मा पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ता है। जब शिशु 3-6 मास का हो जाये, तब उसे इस संस्कार से युक्त करना चाहिये, जिससे शिशु द्वारा ग्रहण किये गए भोज्यान्न से उसके जीवन में उच्च संस्कार तथा उच्च भाव वृत्तियों का सृजन हो सके। इससे उसमें उदात्त गुणों का प्रस्फुटन होता है। अन्न दोष से जो अनेक दुर्गुण अज्ञात रूप से मनुष्य को विरासत में मिल जाते हैं, वे इस संस्कार के प्रभाव से उत्पन्न नहीं होते हैं। संस्कार प्राप्ति हेतु माता-पिता स्वयं अपने तथा शिशु कि लिये ‘अन्नपूर्णा’ देवी की पुजा अवश्य करें। अन्नप्राशन संस्कार मूलभूत रूप में देवी अन्नपूर्णा की ही साधना है। इसे शिशु के लिये माता अथवा पिता को सम्पन्न करना चाहिये। इस साधना के प्रभाव से शिशु कृशकाय, रोगी या जीर्ण-शीर्ण नहीं रहता। अन्न शक्ति से उसका शरीर पुष्ट रहता है। अन्नपूर्णा मन्त्र:-

‘‘ॐ क्रीं क्रुं क्रों हूं हूं ह्रीं ह्रीं ॐॐॐॐ अन्नपूर्णायै नमः’’

अनायास धन योग

लग्नेश और द्वितीयेश आपस में एक दूसरे के भाव में हो, तो अनायास धन आता है। (दृष्टव्य - अकस्मात् धन)

अनावधिक धूमकेतु

अनावधिक धूमकेतुओं का पथ बहुत बड़ा दीर्घवृत्त होता है और एक बार दिखाई देने के बाद सूर्य से इतनी दूर पहुंच जाते हैं कि इनका पथ किसी कारणवश इतना बदल जाये कि वह सूर्य की आकर्षण शक्ति से बाहर हो जाये। तब इनका पथ परवलय की तरह हो जाता है और पुनः सौर-मंडल में वापस नहीं आते। कुछ ऐसे भी होते हैं जो ग्रहों की आकर्षण शक्ति के कारण उसके चारों ओर छोटे पथ में परिक्रमा करने लगते हैं। ऐसे धूमकेतुओं की संख्या सावधिक धूमकेतुओं से बहुत अधिक है।

अनुराधा नक्षत्र

तुला राशि के पास ही दक्षिण-पूर्व की ओर एक बड़ा ‘वृश्चिक मण्डल’ या वृश्चिक राशि’ है, जिसकी आकृति बिच्छु के समान है। यह राशि मानचित्र में 225 अंश देशान्तर से 255 अंश देशान्तर तथा 30 अंश दक्षिणी अक्षांश तक फैली हुई है। इसके मुहँ की ओर पाँच चमकीले सितारे हैं, जिनमें दक्षिण की ओर चौथे नम्बर का सितारा ‘अनुराधा’ नक्षत्र है। यह 223 अंश 19 कला देशान्तर पर स्थित है। आकाश गंगा का 17वां नक्षत्र ‘अनुराधा’ का विस्तार 213 अंश 20 कला से 226 अंश 40 कला तक निर्धारित है। इस तारे को अरबी साहित्य में ‘अलइकलील’ (अर्थात् ताज) ग्रीक भाषा में ‘स्कार पियोनिस’ तथा चाइनीज स्यू में ‘फंग’ कहते हैं। अनुराधा का अर्थ होता है ‘सफलता’। काव्य के अनुसार अनुराधा 3 तारों का समूह है, जबकि अधिकारी विद्वान इसमें 4 तारों का समूह मानते हैं। यह नक्षत्र कभी कमल के समान नजर आता है, तो कभी छतरी के समान दिखता है। इस नक्षत्र का अधिदेवता मित्र है। मित्र भी 12 आदित्य में से एक है, जो कि दक्ष प्रजापति की संतान है, जिसमें सूर्य प्रधान है, जिसने ‘अदिति की कोख से जन्म लिया है। इस कारण सूर्य को आदित्य भी कहते हैं। ‘मित्र’ सूर्य का ही सहोदर है। यह नक्षत्र मस्तिष्क के तन्तु जाल का संचालक और संग्राहक कोष्ठ (ब्रेन सेल्स) का अधिपति है। यह प्रकोष्ठ अन्न रस, जल, नाड़ी स्नायु से भरपूर होता है, जिसका बाहरी स्वरूप-तन्तु बाल तथा लम्बे रेशे जैसे शरीरांग संचालक तत्त्व भी माने गये हैं। मस्तिष्क के किसी भी उतार-चढ़ाव का प्रभाव, सम्पूर्ण शरीर में इसी तन्तु जाल के जरिए होता है। अनुराधा नक्षत्र में विवाह, गन्धकर्म, सुगन्धित पदार्थों का व्यवसाय, हाथी, घोड़ा, ऊँट, दोपहिया या चारपहिया वाहनों का संचालन, इनके लिये गैरेज की व्यवस्था शुभ होती है। चिकित्साकार्य, सर्जरी का कार्य, शवच्छेदन सीखना आदि के लिये यह नक्षत्र शुभ होता है। हड्डियों का आपरेशन करने के लिये अनुराधा नक्षत्र शुभ होता है। यह मैत्र संज्ञक नक्षत्र विवाह का नक्षत्र है।

अनुष्ठान योग

(क) जन्मांग में शनि यदि दशमेश के साथ हो या दशमेश राहु व केतु के साथ हो। (ख) यदि दशमेश गुरू के साथ हो, या दशमेश सूर्य हो, बुध हो तो अनुष्ठान का कार्य जातक अवश्य करावे। (ग) जब नवमेश और पंचमेश दोनों का परस्पर सम्बन्ध हो तो जातक के लिये अनुष्ठान प्रेरणादायक होता है। यज्ञादि कार्यों से जातक की ख्याति होती है।

अपक्रम

आकाशीय विषुवत वृत्त से क्रान्ति वृत्त की ओर ग्रहों का अन्तर इस विषुवत वृत्त (Celestial Equator) से नापा जाता है जिससे यह ज्ञात हो जाता है कि कोई तारा या ग्रह विषुवत वृत्त से उत्तर या दक्षिण में कितने अन्तर पर है। विषुवत वृत्त से ग्रहों या तारों की उत्त या दक्षिण अंषात्मक नाप ही उत्तर या दक्षिण क्रान्ति कहलाती है। यह ध्यान रखें कि क्रान्ति वृत्त से उत्तर या दक्षिण को ग्रहों या तारों के अन्तर को शर या अक्षांश (Celestial Latitude) कहते हैं जबकि विषुवत वृत्त से ग्रह-तारादि की उत्तर या दक्षिण दूरी को क्रान्ति (Declination) कहते हैं। वस्तुतः क्रान्ति से यह ज्ञात होता है कि ग्रह या तारा विषुवत वृत्त से कितने कोणात्मक अन्तर पर उत्तर या दक्षिण गोल में हैं। सूर्य सदा क्रान्ति वृत्त पर ही चलता है, इसलिये उसका कोई शर नहीं होता, परन्तु विषुवत वृत्त से उसका अन्तर घटता बढ़ता रहता है, जिस कारण सूर्य की क्रान्ति घटती बढ़ती रहती है।

अपकीर्ति

(क) लग्न में राहु व शनि हो। (ख) लग्नेश केन्द्र में राहु के साथ हो तथा कोई पापग्रह दशम भाव में हो, (ग) कोई कमजोर ग्रह, नीच ग्रह लग्न में हो और शनि उसे देखता हो।

अपराध योग

अपराध अनेक प्रकार के होते हैं। इस बिन्दु के अन्तर्गत सभी को परिभाषित करना दुस्कर कार्य है। लग्न महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। लग्न ही मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, जो उस जातक के अहं को उकसाती है। छठा भाव मनुष्य के आन्तरिक पाप का है और असामाजिक तत्त्व पैदा करता है। अष्टम भाव उस अपराध के क्रियाकलाप से सम्बन्धित है और नवम भाव से उसका परिणाम प्रभावित होता है। (क) लग्नेश व द्वादशेश अष्टमस्थ हो, षष्ठेश लग्नस्थ, अष्टमेश नवम में तथा राहु द्वादश भाव में हो तो जातक अपराध करता है। (ख) नेपच्यून वक्री हो, सप्तमेश चन्द्रमा दो अशुभ ग्रहो के साथ अशुभ भाव में हो तो जातक अपनी पत्नी का कत्ल कर देता है। अथवा लग्न में नेपच्यून हो, यूरेनस उससे समकोण पर हो, शुक्र और वक्री मंगल आमने-सामने हो, चन्द्र और शनि भी आमने-सामने हो, बृहस्पति सूर्य से समकोण पर हो और शनि लग्न से चतुर्थ स्थान पर हो।

अप्रकाशक ग्रह

क्र तात्कालिक स्पष्ट सूर्य में 4.130.20’ जोड़ने से ‘धूम स्पष्ट’ होता है। यह महादोष है तथा सब कार्यों को नष्ट करता है। (क) धूम स्पष्ट को 12 राशियों में से घटाने पर शेष ‘व्यतिपात स्पष्ट’ होता है। (ख) व्यतिपात स्पष्ट में छह राशि जोड़ने पर ‘परिवेष स्पष्ट’ होता है। (ग) 12 राशियों में से परिवेष घटाने पर ‘इन्द्रचाप स्पष्ट’ होता है। (घ) इन्द्रचाप स्पष्ट में 160.40’ जोड़ने से ‘उपकेतु स्पष्ट’ होता है। ये सब ‘अप्रकाशक’ ग्रह हैं, अर्थात् आकाश में इनका भौतिक पिण्ड नहीं दिख्ता, लेकिन ये महान दोष कारक पापीष्ठ उपग्रह होते हैं। यदि ये धूमादि लग्न, चन्द्र लग्न में हो तो वंश, आयु व ज्ञान का नाश करते हैं। (बृहत्पाराशर होराशास्त्र, अ.3, श्लो.64-68)

अभिजित नक्षत्र

‘शौरी मण्डल’ (Hercules or Dosanus) के पूर्व में पाँच सितारो का मण्डल ‘बीणा मण्डल’ (Lyrae) कहलाता है जिसकी आकृति बीणा के समान है। आकाशीय मानचित्र में यह 270 अंश देशान्तर तथा 35 अंश उत्तरी अक्षांश पर दिखाई देता है। इसके उत्तर की ओर का सितारा सबसे चमकीला है, जिसे ‘अभिजित’ कहते हैं। यह नक्षत्र 38 अंश उत्तरी अक्षांश पर दिखाई देता है। यह प्रथम श्रेणी का सितारा है, जो सूर्य से 63 गुना तेजस्वी तथा पृथ्वी से 27 प्रकाशवर्ष दूर है। आज से 12000 वर्ष पूर्व हमारी पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव इस ‘अभिजित’ नक्षत्र की ओर था जो आज ‘ध्रुव तारे’ (Pole Star) की ओर है तथा 12000 वर्ष पश्चात् पुनः इसी ओर होगा। इसके स्वामी ब्रह्माजी हैं। यह नक्षत्र आकाशगंगा से बाहर है; अतः इसकी गिनती मुहूर्त्त को छोड.कर शेष कार्यों में नक्षत्रों के अन्तर्गत नहीं की जाती। भारतीय ज्योतिष में इसे भी 28वाँ नक्षत्र माना जाता है। ज्योतिर्विदों का अभिमत है कि उत्तराषाढ़ा की आखिरी 15 घटियां और श्रवण नक्षत्र की प्रारम्भ की 4 घटियां, इस प्रकार 19 घटी मान का अभिजित नक्षत्र है। इसका गणितीय विस्तार 9 राशि 6अंश 40कला से 9 राशि 10 अंश 53कला 20विकला’ तक माना गया है। इसके चरणाक्षर जू, जे, जो और खा हैं। यह समस्त कार्यों में शुभ माना जाता है।

अभिजित् मुहूर्त्त

किसी नगर/ग्राम के स्थानिय दिनमान को 15 से भाग देने पर उस स्थान में उस दिन के अभिजित् मुहूर्त्त का मान प्राप्त होता है। अभिजित् मुहूर्त्त का मान मध्यममान से 48 मिनट होता है। भारत में इसका परमाधिक और परमाल्प मान क्रमशः 58 और 38 मिनट है। किसी नगर में किस दिन अभिजित् कब से कब तक रहता है - इसका निर्णय उस नगर के उस दिन के दिनमान या सूर्योदयास्तकाल पर निर्भर करता है। अतः स्पष्ट है इसका मान प्रत्येक नगर में प्रतिदिन बदलता रहता है। वास्तविक प्रारम्भ और समाप्ति काल जानने के लिये अभीष्ट नगर और अभीष्ट दिन के सूर्योदय काल में उस दिन का स्थानीय दिनार्ध जोड़कर उसे उसे दो अलग-अलग स्थानों पर रखिये। इनमें स्थानीय दिनार्ध का 15 वां भाग घटाने और जोड़ने से उस नगर में उस दिन अभिजित् का क्रमशः वास्तविक प्रारम्भ और समाप्ति काल ज्ञात होगा। दिन के समय किये गये सभी मंगल कार्य सफल होते हैं - ऐसा शास्त्रों का कहना है- यात्रा-नृपाभिषेको उद्वाहोऽन्यच्च मांगल्यम्। सर्वं शुभदं ज्ञेयं कृतं मुहूत्र्तेऽभिजित्संज्ञे।। यह भी शास्त्रकारों का मत है कि अभिजित् मुहूर्त्त बड़े से बड़े दोषों को भी नष्ट करने की क्षमता रखता है। - अभिजितत्सर्वदेशेषु मुख्यदोषविनाशकृत्। इससे यह स्पष्ट है कि जब किसी मंगलकृत्य के लिये निर्दोष लग्न न मिले तब उसे अभिजित् मुहूर्त्त के समय सम्पन्न कर लेना चाहिये। इसमें यात्रागार (यात्री- प्रतीक्षालय) का निर्माण विशेष प्रशस्त माना गया है। बुधवार का अभिजित् मुहूर्त्त मान्य नहीं है। अभिजित् मुहूर्त्त में दक्षिण दिशा की या़त्रा भी नहीं करनी चाहिये।

अभिनेता योग

(क) शुक्र ग्रह गायन-वादन, कला-सौन्दर्य से सम्बन्धित है। (ख) चर, द्विस्वभाव लग्न, शुक्र और लग्नेश का दशम से सम्बन्ध अवश्य होता है। (ग) उच्च का मंगल और गुरू का योग हो। (घ) गजकेशरी योग भी अच्छा रहता है। (ङ) लग्न व त्रिकोण में बृहस्पति हो। चरित्र अभिनेताओं का कर्क व मीन लग्न होता है। (च) खलनायक में लग्नेश मंगल, शनि या राहु पापग्रह वहां होता है। खलनायकों का जन्म मकर, वृश्चिक लग्न में होता है। (छ) अच्छे कलाकारों के दो-तीन ग्रह स्वक्षेत्री होते है। (ज) अभिनेत्रियों के गजकेसरी योग, गन्धर्व योग और मालव्य योग होता है। (झ) संवाद लेखकों में मंगल-राहु एवं मंगल-चन्द्रमा का योग रहता है।

अभिषेक नक्षत्र

जन्म नक्षत्र से सत्ताईसवाँ नक्षत्र अभिषेक नक्षत्र कहलाता है।

अमल कीर्ति योग

यदि जन्म समय में चन्द्रमा से दशम स्थान में कोई शुभ ग्रह हो तो ऐसे जातक की कीर्ति पृथ्वी में कलंक-रहित होती है। ऐसे जातक की सम्पत्ति, आयु पर्यन्त नष्ट नहीं होती।

अमला योग

लग्न से दशम स्थान में शुभ ग्रह हो तो अमला योग का निर्माण होता है। चन्द्रमा से दशम में शुभ ग्रह होने पर भी माना जाता है।

अमारक योग

यदि सप्तमेश नवम में एवं नवमेश सप्तम में हो, एवं सप्तमेश व नवमेश दोनों बली हो तो यह योग होता है। ऐसा योग वाला जातक आजानु-बाहु होता है। आँखें इसकी बड़ी-बड़ी होती है, धर्म-शास्त्र अर्थात् कानून का गम्भीर विद्वान् होता है। इस विद्या का प्रशंसनीय ज्ञाता होने के कारण वह राजा से सम्मानित होता है। उसकी स्त्री आदर्श पतिव्रता होती है। ऐसा जातक पवित्र जलों में स्नान करने वाला होता है और पचास वर्ष से ऊपर की अवस्था में असीम सुख लाभ करता है।

अमावस्या

(पर्यायवाची - अमा, अमावस, अमवसा, कुहू, दर्श, मावस, मासांत, सिनीवाली, सूयदुसंगम) नूतन चन्द्रमा का दिन, वह समय जब कि सूर्य और चन्द्रमा दोनों संयुक्त रहते हैं, प्रत्येक चान्द्र मास के कृष्ण पक्ष का पन्द्रहवाँ दिन - ‘सूर्याचन्द्रमसोः यः परः संन्निकर्षः साऽमावस्या - गोभिल., चन्द्रमा की सोलहवीं कला। चन्द्रमा में स्वयं का प्रकाश नहीं है। वह सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है। तथा यह प्रकाश परावर्तित होकर पृथ्वी पर आता है। चन्द्रमा पर सूर्य का जितना प्रकाश पड़ता है उसका 7% वह प्रतिबिम्बित कर देता है। इसका प्रकाश सूर्य के प्रकाश से पाँच लाख गुना कम है। चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश से चमकता है इसका ज्ञान प्राचीन आर्यों को भी था। ‘तैत्तिरीय संहिता’ में लिखा है, ‘‘सूर्य रश्मिश्चन्द्रमा गंधर्व’’ अर्थात् चन्द्रमा का गंधर्व सूर्य के प्रकाश से चमकता है। चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है जिससे उसका प्रकाशित भाग सूर्य की ओर रहने के कारण सदा घटता-बढ़ता दिखाई देता है। चन्द्रमा के प्रकाशित भाग के घटने-बढ़ने को ‘चन्द्रमा की कलाएँ’ (Phases of Moon) कहते हैं। चन्द्रमा अपनी पृथ्वी-परिक्रमा में जब पृथ्वी और सूर्य के बीच आ जाता है तो उसे ‘नव चन्द्र’ (New Moon) कहते हैं। इस दिन अमावस्या होती है। अमावस्या के दिन चन्द्रमा सूर्य के साथ ही उदय होता है और उसी के साथ अस्त हो जाता है। और पृथ्वी के बीच में आ जाने के कारण उसका प्रकाशित भाग सूर्य की ओर रहता है तथा अन्धकार नहीं देता। चन्द्रमा की इस स्थिति को ‘युति’ (Conjuction) कहते हैं। युति की स्थिति में सूर्य के तीव्र प्रकाश के कारण भी वह दिखाई नहीं देता, किन्तु चन्द्रमा की भाँति पृथ्वी भी चमकती है और चन्द्रमा का वह अन्ध्कार वाला भाग भी कुछ प्रकाशित रहता है। यदि सूर्य के प्रकाश को कम करके देखा जाये तो दिन के समय भी चन्द्रमा देख सकते हैं। अमावस्या के आठ प्रहर बनाओ। पहले पहर का नाम सिनीवाली है, मध्य के पाँच पहरों का नाम दर्श है, सातवें-आठवें पहरों का नाम कुहू है। किन्हीं आचार्यों का मत है कि 3 कला रात शेष रहने के समय से रात्रि की समाप्ति पर्यन्त सिनीवाली है, प्रतिपदा से विद्ध अमावस्या का नाम कुहू है, चतुर्दशी से जो विद्ध हो वह दर्श है। सूर्यमण्डल समसूत्र से अपनी कक्षा के समीप में स्थित परन्तु शरबश से पृथक् स्थित चन्द्रमण्डल जब हो तो सिनीवाली होती है, सूर्य मण्डल में आधे चन्द्रमा का प्रवेश जब हो जाये तो दर्श होता है, सूर्यमण्डल तथा चन्द्रमण्डल जब समसूत्रों में हो तो कुहू होती है, अर्थात् चन्द्रमा के अदृश्यमान होने पर। अमावस्या का अधिष्ठाता देवता पितर माना गया है। तिथिफल अशुभ माना गया है। अमावस्या के दिन केवल पितृकर्म करने चाहियें, शुभ मंगल कार्यों को नहीं। केतु की जन्म-तिथि भी अमावस्या मानी गयी है। अमावस्या की अन्तिम 5 घड़ियों में अर्थात् अमावस्या समाप्ति के केवल 2 घण्टे शेष रहे हो तो सिनीवाली जन्म कहा जाता है। इस अवधि में जन्म लेने वाला बालक धन-हानि और अपयश देता है। यदि इस अवधि में गाय, भैंस, प्रसूत हो तो भी अशुभ फल होता है। अमावस्या की अन्तिम घड़ी के अन्तिम पलों में अर्थात् अमावस्या समाप्ति के केवल 5, 10 पल या लगभग 2 मिनट पूर्व जन्म हो तो कुहू जन्म कहा जाता है। यह सिनीवाली जन्म से तीव्र अरिष्टकारक है। दोनों ही स्थितियों में शान्ति-विधान अवश्य करना चाहिये।

अमृत योग

अमृतयोग ज्योतिषशास्त्र का एक योगविशेष। ज्योतिष में वर्णित आनंद आदि 28 योगों में 21वाँ योग अमृतयोग है। मंगलवार में भद्रा तिथि (2,7,12) रहने पर, 3,8,13 में गुरूवार रहने पर, 5,10,15 में रवि सोमवार रहने पर, 1,6,11 में बुध या शनिवार रहने पर ‘अमृतयोग’ बनते हैं। ये शुभ होते हैं।

निम्नलिखित स्थितियों में अमृतयोग माना जाता है:

(1) रविवार उत्तराषाढ़ नक्षत्र, (2) सोमवार शतभिषा नक्षत्र, (3) भौमवार अश्विनी नक्षत्र, (4) बुधवार मृगशिरा नक्षत्र, (5) गुरुवार श्लेषा नक्षत्र, (6) शुक्रवार हस्त नक्षत्र तथा (7) शनिवार अनुराधा नक्षत्र।

यह योग अपने नाम के अनुसार अमृतत्व फल देने वाला है अत: इस योग में यात्रा आदि शुभ कार्य श्रेष्ठ माने जाते हैं।

अमृत सिद्धि योग

रविवार व हस्त नक्षत्र, सोमवार में मृगशिरा, मंगल में अश्विनी, बुधवार में अनुराधा, गुरूवार में पुष्य, शुक्रवार में रेवती तथा शनिवार में रोहिणी नक्षत्र रहने पर ‘अमृत सिद्धि’ योग बनते हैं। सामान्य व्यवहार में कदाचित् इन्हें वार व नक्षत्रों के सम्मिलित उच्चारण से भी व्यवहृत किया जाता है। जैसे गुरूवार और पुष्य नक्षत्र के योग को ‘गुरू-पुष्य योग’ इसी प्रकार हस्तादित्य, भौमाश्विनी योग आदि भी कहा जाता है। पुनश्च गुरूपुष्य में विवाह, भौमाश्विनी में गृहप्रवेश व शनिवार रोहिणी में यात्रा कदापि नहीं करनी चाहिये। अत्यन्त आकस्मिकता व अपरिहार्यता की स्थिती में ही विवाहादि में इनका प्रयोग करें।

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