चातुर्मास्य

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विशिष्ट व्रत तथा यज्ञ को चातुर्मास्य कहते हैं। व्रतसंबंधी चातुर्मास्य को "लौकिक चातुर्मास्य" और यज्ञसंबंधी चातुर्मास्य को "वैदिक चातुर्मास्य" कहते हैं।

लौकिक चातुर्मास्य

लौकिक चातुर्मास्य का पालन वर्षा के चार महीनों में किया जाता है। महाभारत (शांति. 320/26) में पंचशिखा द्वारा इसके पालन का उल्लेख मिलता है। इस व्रत का विशद वर्णन भट्टोजी दीक्षितकृत तिथिनिर्णय (पृ.12-13), रघुनंदनकृत कृत्यतत्व (पृ.434-36), स्मृतितत्व (जीवानंद संस्क., द्वितीय भाग) आदि ग्रंथों में मिलता है। आषाढ़ शुक्ल द्वादशी से कार्तिक शुक्ल द्वादशी तक इसका पालन होता है किंतु अन्य मत से इसकी अवधि आषाढ़ संक्रांति से कार्तिक संक्रांति तक मान्य है। व्रतकाल में मांस, गुड़, तैल आदि का व्यवहार वर्जित है और यथाशक्ति जप, मौनादि का विधान है। इसे कहीं-कहीं विष्णुव्रत भी कहते हैं।

वैदिक चातुर्मास्य

वैदिक चातुर्मास्य द्विविध है - स्वतंत्र और राजसूयांतर्गत। स्वतंत्र चातुर्मास्य अग्निहोत्रादि की भाँति नित्यकर्म है और प्रति वर्ष राजसूय यज्ञ के अंतर्गत अनुष्ठेय है। चातुर्मास्य में चार पर्वों का उल्लेख है- वैश्यदेव, वरुण प्रधास, साकमेघ एवं शुनासीरीय। जो तीन ही पर्व मानते हैं, वे शुनासीरीय की गणना नहीं करते। इन चारों में अनुष्ठेय कार्यों का विवरण चिन्नस्वामिकृत "यज्ञतत्वप्रकाश" (पृ. 45-53) और काणेकृत हिस्ट्री ऑव दि धर्मशास्त्र (भाग 2, पृ. 1091-1108) में है। स्वतंत्र चातुर्मास्य के दो पक्ष हैं- उत्सर्ग पक्ष और अनुत्सर्ग पक्ष।

वैदिकों की परंपरा में सोमयज्ञ के अंतर्गत उत्सर्ग पक्ष ही स्वीकृत है। एक दृष्टि से चातुर्मास्य का त्रिविध वर्गीकरण भी है- ऐष्टिक, पाशुक और सौमिक। पशुद्रव्य से किए जाने पर पाशुक और सोमद्रव्य से निष्पन्न होने पर सौमिक चातुर्मास्य होता है।

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