बाण भट्ट

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संस्कृत महाकवियों में बाण भट्ट का विशिष्ट महत्त्व है। उत्कृष्ट गद्यकाव्यकार के रूप में उन्हें सर्वोच्च स्थान दिया गया हैं। इसके अतिरिक्त, ऐतिहासिक दृष्टि से भी उनको अपूर्व विशेषता प्राप्त है। संस्कृत इतिहास के वे ऐसे अकेले कलाकार हैं जिनके जीवनवृत्त के विषय में हमें बहुत सी प्रामाणिक जानकारी प्राप्त है, जो प्राय: उन्हीं के ग्रंथों में उपलब्ध है। हर्षकालीन राजनीतिक और सामाजिक अनेक विषयों के ज्ञान और सूचना देने के कारण हर्षचरित का विशेष महत्त्व है। यह भी पता चलता है कि बाण का काल हर्षवर्धन के शासनकाल (606 ई. से 646 ई.) के आसपास ही था। उस युग में कवि ने काव्यरचना भी की थी। "हर्षचरित" के तीन आरंभिक उच्छ्वासों तथा कादंबरी के आरंभिक पद्यों में बाण के वंश और जीवनवृत्त से संबद्ध जो सूचना मिलती है उसका सारांश यह है :

जीवन परिचय

उनके पूर्वज भट्ट तैतरीय शाखा के उदुम्बर वंश ब्राह्मण थे। सोननदी के किनारे "प्रीतिकूट" में उनके पूर्वजों का निवास था। इसी वंश में इनके वृद्ध प्रपितामह हुए थे। उनका नाम "कुबेर" था और गुप्तवंशीय राजाओं द्वारा उन्हें सम्मान प्राप्त हुआ था। उनके पुत्रों में पाशुपात के अनेक पुत्र थे। उनमें से अर्थपति एक था जिसके 11 पुत्रों में चित्रभानु थे। इन्हीं के पुत्र थे बाण भट्ट। इनकी माता राजदेवी का देहांत तभी हो गया था जब बाण शिशु थे। इनका परिवार धनसंपन्न था। माता के निधन पर चित्रभानु ने माता पिता दोनों के वात्सल्य और कर्तव्य का भार उठाया। बाण जब 14 वर्ष के थे तभी पिता का स्वर्गवास हो जाने से बड़े दु:खी हुए। पैतृक धन, वैभव, योग्य अभिभावक का अभाव और युवावस्था की चपलता के कारण वे आखेट आदि के व्यसनों में पड़ गए। घुमक्कड़ी प्रकृति और अल्हड़ता के कारण वे आवारा होकर कुसंगति में जा पड़े। नत्र्तक, गायक, नट, विट आदि मंडली बनाकर वे देशाटन को निकल पड़े। जब घूम फिर कर वापस आए जब स्वार्जित अनुभूतियों के कारण उनकी बुद्धि विकसित हुई। जब वे हर्ष के यहाँ पहुँचे तो पहले तो "हर्ष" ने उनपर व्यंग्य कसे तथा उनकी अवहेलना की। पर बाद में "बाण" के शास्त्रज्ञान ओर काव्यप्रतिभा से प्रभावित होकर उनहें राजसभा में आश्रय, सम्मान और अपना स्नेह दिया। कुछ समय बाद घर लौटने पर लोगों द्वारा और अपने छोटे भाई के बार बार पूछने पर उन्होंने "हर्ष" की प्रशस्ति में "हर्षचरित" नामक गद्यकाव्य लिखा।

कृतियाँ एवं भाषा-शैली

बाण भट्ट के सर्वाधिक प्रसिद्ध दो ग्रंथ (1) हर्षचरित (बाण के अनुसार ऐतिहासिक कथा से संबद्ध होने के कारण आख्यायिका) और (2) कादंबरी (कल्पित वृत्ताश्रित होने से कथा) हैं। "हर्षचरित" को कुछ लोग ऐतिहासिक कृति मानते हैं। परंतु शैली, वृत्तवर्णन, कल्पनात्मकता और कथारूढ़ियों (मोटिफ) के प्रयोग विनियोग के कारण इसे "ऐतिहासिक रोमांस" कहना कदाचित् असंगत न होगा। कादंबरी का आधार कल्पित कथा है। "सुबंधु" ने गद्यकाव्य की जिस अलंकृत शैली को प्रवर्तित किया, बाण ने उसे विकसित और उन्नत बनाया। कादंबरी में उसका उत्कृष्टतम रूप निखर उठा है। संस्कृत गद्यकाव्यों में इस कथाकाव्य का स्थान अप्रतिम है। इन दोनों कृतियों में तत्कालीन धर्म, संस्कृति, समाज, परंपरा, आस्थाविश्वास, कला, साहित्य, मनोरंजन, राजकीय वैलासिक जीवन आदि का इतना संश्लिष्ट, ब्योरेवार और जीवंत चित्र है जैसा अन्यत्र दुर्लभ है। बाण की भाषा शैली प्रौढ़ है, यद्यपि विशेषणों की बहुलता को आडंबर बताकर अनेक आलोचकों ने उसे बोझिल, गतिहीन और अल्पसार बताया है। अंशत: यह सही भी है किंतु आलंकारिक चमत्कारसर्जना युक्त उनकी वर्णनशैली में विशेषण प्रयोग अर्थहीन नहीं हैं। वर्ण्यवस्तु का चित्रोत्थापक और व्योरेवार वर्णन इस कारण लंबा चौड़ा हो गया है जिससे शब्दों द्वारा अंकित संश्लिष्ट बिंब के सभी रंगों और रेखाओं का सूक्ष्मतम चित्रण किया जा सके : चित्रग्राहिणी प्रतिभा की सूक्ष्म निरीक्षणशक्ति से संपन्न बाण को बिंबोत्थापन में जो सफलता मिली है, वह संस्कृत साहित्य में कदाचित किसी को भी नहीं मिली। इन कृतियों को, इन्हीं ब्योरेवार वर्णन के कारण, तत्कालीन सांस्कृतिक इतिवृत्त का अनुपम साधन कहा जा सकता है। उनकी शैली में वर्णननैपुण्य, निरीक्षणप्रज्ञा, कवि प्रतिभा, शास्त्रवैदुय्य, रसभावघनता, अलंकारचमत्कृति, रीतिप्रौढ़ता आदि गुणों का पूर्ण उन्मेष है। लंबे लंबे, विशेषण डंबरित और समासजटिल भाषाशैली की रचना में वे जितने पटु और समर्थ हैं। उतने ही कुशल और सफल हैं समासहीन और प्रभावोत्पादन में छोटे छोटे लघुतम वाक्यों के अत्यंत समर्थ प्रयोग में। कोमलकांत पदावली और ओज:क्रातिमयी शब्दयोजना में भी उनकी शक्ति विलक्षण थी। कादंबरी उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है। पर इसकी कथा कुछ उलझी हुई है। पूर्वार्ध की ही रचना (जो ग्रंथ का 2/3 भाग है) बाण कर पाए थे। शायद इस कारण भी कथा सुलझ न पाई। इनके पुत्र पुंदि (भूषण) ने सफलतापूर्वक उत्तरार्ध लिखकर इसे पूरा किया। पिता की शैली के अनुकरण में उन्हे आंशिक सफलता ही मिली। कहा जाता है कि पद्य में भी "बाण" ने कादंबरी कथा लिखी थी। पर उक्त ग्रंथ अबतक अप्राप्त है। "चंडीशत" नामक स्तोत्र को बाणरचित माना जाता है। ("पार्वती परिणय" नाटक को भी कुछ पंडित बाणकृत मानते हैं। पर कुछ शोधकों ने उसे 14वीं शती के वामनभट्ट बाण की कृति माना है)।