भगवान महावीर का साधना काल

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भगवान महावीर द्वारा गृह त्याग कर मुनि दीक्षा लेने से लेकर भगवान महावीर के कैवल्य ज्ञान तक की अवधि के बीच का समय साधना काल के नाम से जाना जाता है । यह काल 12 वर्ष का था, इस काल के दौरान प्रभु महावीर ने अनेक कष्टों को सहन किया, अनेकों परीषहो को सहन किया , कभी वे अनार्य भूमि में गए तो कभी उन्हें यक्ष, राक्षसी, मनुष्य, संगम देव आदि ने उपसर्ग दिए धरतीधीर महावीर ने बिना कुछ कहे इन सभी उपसर्गों को सहन किया इस काल के दौरान ही वह वर्धमान से महावीर कहलाए सभी उपसर्ग समता पूर्वक सहे। वैसे तो प्रभु महावीर के साधना काल का जैन आगमो में विस्तार से वर्णन है, परन्तु यहाँ पर जैन आगम कल्पसूत्र में वर्णित मुख्य घटनाओ का हि उल्लेख संक्षेप में किया गया है । भगवान महावीर के साधनाकाल कि मुख्य घटनायें निम्नलिखित है।

प्रभु महावीर की दीक्षा

हेमंत ऋतु के प्रथम पक्ष में, मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी के दिन, चंद्रप्रभा नाम की पालकी पर बैठकर, जनसमूह के साथ, कुंडनगर में ज्ञाता खंड में ,अशोक वृक्ष के नीचे दीक्षा ग्रहण की दीक्षा के समय भगवान महावीर के पास एकमात्र देवदुष्य वस्त्र था।[१]

प्रभु महावीर द्वारा वस्त्र त्याग

भगवान महावीर ने 13 महीनों तक देवदुष्य वस्त्र को धारण किया, उसके बाद प्रभु महावीर निर्वस्त्र हो गए, उन्होंने वह वस्त्र सोम शर्मा नामक गरीब ब्राह्मण को दे दिया[१][२]

दैवीय सुरक्षा को अस्वीकार करना

दीक्षा के अगले दिन भगवान महावीर ज्ञाता खंड उद्यान में ध्यान मग्न थे । तभी वहां पर एक ग्वाला आया और उसने अपने बैल को भगवान महावीर के पास छोड़ दिया, और कहा कि जब तक मैं ना आऊं मेरे बैलो का ध्यान रखना पर भगवान महावीर तो ध्यान मग्न थे, जब वह ग्वाला वापिस आया तो वहां पर उसके बैल नहीं थे। इस बात पर उस ग्वाले को भगवान महावीर पर बहुत क्रोध आया और उसने रस्सी उठाकर भगवान को मारने का प्रयास किया वह रस्सी भगवान महावीर को स्पर्श करने ही वाली थी कि तभी वहां पर देवराज इंद्र आये और उन्होंने ग्वाले को रोक दिया।[१] देवराज इंद्र को देखकर वह ग्वाला भाग गया, तब देवराज इंद्र ने कहा "यह लोग मूर्खता वश आपको पीड़ा देते रहेंगे" तब इंद्र ने हमेशा सुरक्षा करने के लिए आज्ञा मांगी तब भगवान महावीर ने सहजता से उत्तर दिया और कहा कि "आत्म कल्याण के पथ पर चलने वाला साधक स्वयं मुक्ति प्राप्त करता है आज तक कभी भी किसी देवराज की सहायता लेकर कोई भी अरिहंत नहीं बन सकता इसलिए सभी जीवो को अपनी मुक्ति का प्रयास स्वयं ही करना पड़ता है कोई भी प्राणी किसी की साधना में सहायता नहीं कर सकता अतः आप मेरी चिंता ना करें"।

शूलपाणी का उपसर्ग

वेगवती नदी के किनारे एक गांव था उस गांव में शूलपाणी नाम का भयंकर यक्ष रहता था,एक दिन भगवान महावीर संध्या के समय उस गांव के निकट पधारे उस गांव में एक चैत्य था जिसमें वह भयंकर यक्ष रहता था,[३] भगवान महावीर संध्या के समय उस चैत्य में ध्यानमगन हो गए,कुछ समय बाद वहां पर भयंकर आवाजें आने लगी वह यक्ष भगवान महावीर को सताने लगा, वह बिजली की गर्जना करता तो कभी भयंकर अट्टहास करता, उसके बाद जब यक्ष ने देखा कि भगवान महावीर पर उसकी घटना का कोई प्रभाव नहीं हो रहा तब उसने भयंकर विषधर का रूप बनाया, कभी हाथी का तो कभी भयंकर जानवरों का रूप लिया । इतनी से भी जब भगवान महावीर का ध्यान नहीं टूटता तो उसने भगवान महावीर को वेदना देना शुरू किया । प्रभु महावीर में तितिक्षा की असीम शक्ति थी । वे सहजता से यक्ष के सभी उपसर्गों को सह गए, उसके बाद जब यक्ष ने देखा कि यह मेरी किसी भी बात से प्रभावित नहीं है तो यह अवश्य ही कोई महापुरुष होगा। यक्ष ने उससे पहले कई सारी हत्या की थी, पर वह भगवान महावीर को प्रभावित नहीं कर सका पूरी रात उपसर्ग देने के बाद वह लज्जित हो गया । तब उसने भगवान महावीर से क्षमा याचना मांगी तो भगवान महावीर ने अभय मुद्रा में वर देते हुए कहा कि हिंसा से ही हिंसा फैलती है, आतंकित व्यक्ति कभी भी सुखी नहीं हो सकता जिसमें भय होता है वही भयभीत होता है। अभय व्यक्ति को किसी का भी भय नहीं होता, अतः अहिंसा व शांति ही लोक कल्याण का मार्ग है। उसके बाद उसने कभी भी किसी को न सताने का वचन दिया।[४]

चंडकौशिक का उपसर्ग

भगवान महावीर अस्तिका नगरी से प्रस्थान कर श्वेत अंबिका का नगर की तरफ बढ़े,रास्ते में उन्हें एक जगह दिखाई दी जहां से दो रास्ते जाते थे,उन्होंने राहगीर से पूछा श्वेत अंबिका नगरी किस तरफ है, तो राहगीर ने कहा यह रास्ता बड़ा परंतु सुरक्षित है परंतु दूसरा रास्ता जो जंगल से होकर जाता है, छोटा तथा भयानक है, क्योंकि इस रास्ते में भयंकर विषधर चंडकौशिक रहता है । इस रास्ते का उपयोग कोई भी नहीं करता इस रास्ते जो भी जाता है , वह मारा जाता है, भगवान महावीर मुस्कुराए और वह जंगल की तरफ चल दिए जंगल में वह सांप की बांबी के पास पहुंचे । चंडकौशिक सर्प बहुत ही भयंकर जहरीला था, उसके जहर की सीमा इतनी थी कि मात्र दृष्टि मात्र से लोगों के जीवन का अंत कर देता था , उसकी फुफकार इतनी जहरीली थी कि उसने पूरा जंगल उजाड़ दिया था। वह सर्प स्वभाव से गुस्सैल भी था, जब उसने भगवान महावीर को अपने पास देखा तो उसने अपनी विषैली दृष्टि भगवान महावीर पर डाली ,पर जब उसकी दृष्टि का प्रभाव प्रभु पर नहीं हुआ तो उसने भयंकर विषैली फुफकार मारी ,पर भगवान महावीर तो पर्वत के समान अविचल खड़े रहे। इसके बाद उस सर्प ने भगवान महावीर के अंगूठे पर प्रहार किया और अपना संपूर्ण विष एकत्रित कर, उसने प्रभु पर डाल दिया पर यह क्या! अंगूठे में रक्त के स्थान पर दूध की धारा बह निकली यह देख कर उस विषधर को बहुत आश्चर्य! हुआ। भगवान महावीर ने अपनी शांत वाणी में विषधर से कहा कि "शांत चंडकौशिक शांत तुम्हारी पूर्व जन्मों के कारण ही तुम्हें यह सर्प की योनि मिली है। अपने गुस्से के कारण तुम कितने और जन्म व्यर्थ करोगे, शांति और अहिंसा ही मुक्ति का मार्ग है।" भगवान महावीर की शांत वाणी को सुनकर विषधर शांत हो गया और उसने उसी वक्त से गुस्सा त्याग कर समर्पण कर दिया, कुछ समय बाद उस विषधर में अपने प्राण त्यागे,कुछ ही समय में यह समाचार बाहर के गांव में फैल गया, लोगों ने दूध आदि से उसका अभिषेक किया, जैन मान्यता के अनुसार यही दिन नाग पंचमी कहलाया।

कटपूतना का परिषह

यह घटना भगवान महावीर के साधना काल के छठे वर्ष की है,यह घटना माघ के महीने की है, जब सर्दी अपने चरम पर थी, बर्फीली हवाएं तेजी से चल रही थी । एक रात भगवान महावीर ध्यान मग्न वृक्ष के नीचे खड़े थे, उस जंगल में एक राक्षसी जिसका नाम कटपूतना था, उसका निवास था, भगवान महावीर ध्यान मग्न थे। उसी रात कठपुतना ने प्रभु महावीर को देखा और क्रोधित होकर प्रभु महावीर की तरफ बढ़ी, रात्रि की बर्फीली सर्दी में उसने भगवान महावीर पर बर्फीले जल की बारिश की और भयंकर गर्जना के साथ हसी, प्रभु महावीर ने उस परीषह को समभाव से सहन किया,अंततः राक्षसी ने हार मान ली, भगवान महावीर पर्वत के समान अविचल खड़े रहे। कटपूतना को अपने किए पर पश्चाताप हुआ और वह भगवान महावीर को प्रणाम कर वहां से चली गई।आत्मा के उच्च स्वरूप को धारण करने के कारण भगवान महावीर को लोकाअवधि वशिष्ठ ज्ञान की प्राप्ति हुई । यह घटना हमें जैन ग्रंथ कल्पसूत्र से प्राप्त होती है।

आदिवासियो के बीच

भगवान महावीर का विहार क्षेत्र बहुत विस्तृत था, भगवान महावीर ने आर्य भूमि को छोड़कर अनार्य भूमि में भी अपना कुछ वक्त बिताया था। भगवान महावीर केवल ऐसे जैन तीर्थंकर हैं । जिनका विहार बहुत ज्यादा विस्तृत है, भगवान महावीर अपनी साधना के लगभग डेढ़ वर्ष तक आदिवासियों के बीच रहे थे। इस दौरान आदिवासियों को न धर्म की समझ थी, और ना ही उन्हें कुछ और आता था। वह एकदम असभ्य और अनार्य थे। वह केवल अपने मनोरंजन के लिए भगवान महावीर को कभी धक्का दे देते थे, तो कभी उनके पीछे कुत्ते छोड़ देते थे, कई लोग उनको पत्थर से मारते थे तो कई लोग कष्ट देते थे । कभी-कभी प्रभु महावीर एक गांव से दूसरे गांव भी जाते थे, पर उन्हें आहार के नाम पर केवल सूखी रोटी मिलती थी। प्रभु महावीर ने अपनी साधना का नौवां वर्ष के 6 मास अनार्य भूमि में ही बिताए थे। श्रमण महावीर का यह क्षेत्र राढ़ के नाम से जाना जाता था । प्रभु महावीर ने अनेकों कष्टों को सहा पर कभी भी उन्होंने अहिंसा व शांति का मार्ग नहीं छोड़ा उनकी शांति व अहिंसा देखकर आदिवासी भी सुधर गए और उन्होंने करीब से धर्म को जाना ।

संगम देव के परिषह

भगवान महावीर को सबसे ज्यादा कष्ट संगम देव ने ही दिया था। यह कथा जैन आगामो में विस्तार से वर्णित है, कहते हैं एक बार स्वर्ग में राजा इंदर भगवान महावीर के तप की प्रशंसा कर रहे थे, तभी वहां संगम देव भी बैठा था। उससे इंद्र द्वारा प्रभु महावीर की हुई प्रशंसा अच्छी नहीं लगी, उसने प्रभु महावीर की परीक्षा लेनी चाहि। भगवान महावीर को देवताओं, राक्षसों, यक्षो, मनुष्य, जानवरों आदि सभी ने उपसर्ग दिए पर प्रभु महावीर ने सभी उपसर्गों को समभाव से सहन किया। जैन मान्यता अनुसार संगम देव ने भगवान महावीर को 6 माह तक कष्ट दिया ।भगवान महावीर का सबसे बड़ा उपसर्ग संगम देव ने दिया था। उन्होंने एक ही रात में प्रभु महावीर को 20 उपसर्ग दिए कभी उसने हाथी का रूप बनाया, कभी उसने प्रभु महावीर के शरीर पर चिंटी छोड़ दी कभी सिंह से कटवाया और कभी भयंकर विषधर छोड़ दिए, वह भगवान महावीर के चरणों में खीर तक पकाने लगा था । उसने प्रभु के इर्द-गिर्द अप्सराओं को भी छोड़ दिया था पर विश्व ज्योति महावीर पर्वत के समान अविचल खड़े रहे, संगम देव ने कभी बादलों की भयंकर गर्जना की, तो कभी भालो चाकू आदि से तीव्र प्रहार किए। इतना सब करने के बाद भी जब भगवान महावीर ध्यान मगन ही रहे तो उसने भगवान महावीर के माता पिता का रूप बनया और कहा कि तुम साधना छोड़ दो पर प्रभु महावीर अंतर्यामी थे, वह जानते थे कि यह देव माया है, उसने प्रभु को कष्ट देने की कोई भी सीमा नहीं छोड़ी पर जब सभी उसके कार्य निष्फल हुए तो वह वहां से खिन्न होकर चला गया। उसके बाद उसने प्रभु को निरंतर कष्ट दिये पर उसके बार-बार यातना देने पर भी जब प्रभु पर कोई फर्क नहीं पड़ा तो तो वह लज्जित हुआ। उसने कहा हे! महामुनि मैंने आपको व्यर्थ ही कष्ट दिया देवराज इंद्र ने आपकी सही प्रशंसा की थी, इतना सुनकर प्रभु महावीर की आंखों से आंसू निकल आए फिर संगम देव ने आंसुओं का कारण पूछा तो प्रभु महावीर ने कहा "आज तक मैंने अनेक जीवों का कल्याण किया है, और आगे भी मेरा धर्म जीवो का कल्याण करेगा, मैं हमेशा से ही चाहता था कि मैं उनकी मुक्ति का कारण बनू, लेकिन तुमने अकारण कि मुझे जो कष्ट दिया है उस वजह से तुमने न जाने कितने कर्मों का बंधन कर लिया इसी वजह से मेरी आंखों में आंसू आए कि मैं मुक्ति का कारण बनू ना की किसी जीव के बंधन का" इस के पश्चात संगम देव वहां से स्वर्ग लौट गया। जब इंद्र को इस बारे में मालूम चला तो इंद्र ने उसे आजीवन एकांतवास मदार पर्वत के लिए निर्वासित कर दिया।

चंदनबाला और अभिग्रह

यह घटना भगवान महावीर के साधना काल के 12वीं वर्ष की है, इस कहानी का विस्तार से उल्लेख जैन आगमो में मिलता है । भगवान महावीर वैशाली से चतुर्मास पूर्ण कौशांबी आए, पौष कृष्ण एकम के दिन असंभव सा अभिग्रह लिया और कहा कि "मैं ऐसी राजकुमारी से भिक्षा लूंगा, जिससे दासी बना दिया गया हो, वह भी उस शर्त में जब उसका सिर मुड़ा हो, हाथों में हथकड़ी व पैरों में बेड़ियां पड़ी हो, वह तीन दिन से भूखी प्यासी हो, वह न तो घर के अंदर हो और ना ही घर से बाहर हो, बहराने के लिए उसकी टोकरी में केवल दाल के बाकुले हो उसके होठों पर मुस्कान हो तथा आंखों में आंसू हो जब तक मेरा अभिग्रह पूरा नहीं हो जाता मैं पारणा नहीं डालूंगा"।उसके बाद एक-एक कर दिन बीते गए और दिन महीनों में बदल गये पर भगवान महावीर भिक्षा के लिए जाते और खाली हाथ वापस आ जाते लोगों में कौतूहल बढ़ गया, प्रभु आते हैं पर भिक्षा नहीं लेकर जाते, लोग चिंतित हो उठे प्रभु महावीर ने कहा कि तुम मेरी चिंता मत करो, कुछ समय बाद दैव योग से उनकी भेंट चंदनबाला से हुई, जो एक राजकुमारी थी वह गणिका के हाथों बेची गई थी, उसका सिर मुड़ा हुआ था, वह 3 दिन से भूखी थी, वह ना घर के अंदर थी और न हीं घर के बाहर थी जब उसने देखा कि प्रभु आ रहे हैं तो उसके होठों पर मुस्कान आ गई, वह अपनी पीड़ा के कारण दुखी थी तो उसकी आंखों में आंसू थे, और उसके पास सिर्फ और सिर्फ दाल के बकुले ही थे। इस प्रकार से चंदनबाला ने प्रभु महावीर को भिक्षा दी और प्रभु महावीर का अभिग्रह पूर्ण हुआ देवताओं ने पुष्प बरसाए और अहो दानम्! अहो दानम्! का नाद हुआ। बाद मे यही चंदनबाला भगवान महावीर कि प्रथम साध्वी बनी। चन्दनबाला प्रभु महावीर कि साध्वी संघ कि प्रमुख बनी थी। भगवान महावीर के अभिग्रह का उद्देश्य दास्ता से मुक्ति थी।६०० ईसा पूर्व मे जब स्त्रीयो को अधिकार नही था और दास प्रथा का बोलबाला था तब प्रभु महावीर हि वह प्रथम नायक थे,जिन्होंने स्त्रीयो को धर्म का अधिकार दे कर उन्हे सशक्त किया था, उन्होने दासता से मुक्ती करवाकर दास प्रथा पर प्रहार किया था।

कानों में कीले

यह भगवान महावीर की साधना का अंतिम उपसर्ग था। यह घटना भगवान महावीर की साधना काल के 12 वें वर्ष में घटित हुई,एक बार भगवान महावीर कार्योत्सर्ग मुद्रा में गोधूलि बेला के वक्त ध्यान मग्न खड़े थे, उसी वक्त वहां पर एक ग्वाला आया और उसने कहा मेरे बैलों का ध्यान रखना जब वह ग्वाला दुबार से आया तो उसे उसके बैल नहीं मिले तब उस ग्वाले ने गुस्से से कहा "मैंने अपने बैल यहां पर छोड़े थे, आप बताइए वह कहां पर हैं" पर प्रभु महावीर तो ध्यान मग्न थे ।कोई भी उत्तर न पाकर वह ग्वाला आग बबूला हो उठा। उसने एक कीलनुमा शूल को उठाया और उसे प्रभु महावीर के दोनों कानों में ठोक दिया और वहां से चला गया । भगवान महावीर को असंख्य पीड़ा हुई पर उन्होंने उफ! तक नही की,उनके भीतर कोई भी क्रोध और द्वेष की भावना नहीं जन्मी । अगले दिन भगवान महावीर भिक्षाटन के लिए सिद्धार्थ नामक व्यापारी के घर पहुंचे, वहां पर उसका मित्र वैद्य भी वहीं था, उसने प्रभु महावीर को देखकर ही अनुमान लगा लिया कि यह भयंकर पीड़ा में है, और असहजता महसूस कर रहे हैं, उन्होंने प्रभु महावीर को शरीर का परीक्षण कराने के लिए कहा पर प्रभु महावीर अपनी मर्यादा के अनुसार कुछ भी नहीं कह वहां से चल दिए। जब प्रभु महावीर भिक्षा लेकर दुबारा से ध्यानमगन हो गए, तब वह वैद्य वहा गया और उसने प्रभु महावीर का परीक्षण किया तब उसने पाया कि प्रभु महावीर के कानों में कीले जुड़े हुए हैं, तो उसने अपने औजारों को लेकर प्रभु महावीर के कानो से शूल की बनी की ली को निकाल दिया, प्रभु महावीर के कानो से रक्त बह निकला तो उसने औषधि से उनका उपचार किया, यह भगवान महावीर की साधना का सबसे भयंकर उपसर्गों में से एक था, और यह अंतिम उपसर्ग भी था।

भगवान महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति

12 वर्षों तक कठोर तपस्या करने के पश्चात भगवान महावीर को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई, भगवान महावीर ने 12 वर्षों में न जाने कितने ही कष्टों को सहा, कभी वे कारागार में गए, कभी उन्हें फांसी की सजा दी गई,कभी उन्हें संगम देव ने कष्ट दिए,कभी उन्हें आदिवासियों द्वारा प्रताड़ित किया गया, कभी उन्होंने भूख को सहन किया, कभी प्यासे को तो उन्होंने समभाव से ग्रीष्म व शीत ऋतु भी सहन की , एक राजकुमार होते हुए भी उन्होंने हंसकर कष्टों को सहन किया। इन 12 वर्षों की साधना काल के पश्चात वह वर्धमान से महावीर बन गए, वह केवल ज्ञान को पा गए और उसके पश्चात उन्होंने साधु ,साध्वी, श्रावक ,श्राविका नामक चार तीर्थों की स्थापना की और तीर्थंकर कहलाए, महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर बने ।वैशाख शुक्ल दशमी के दिन ऋजुबालिका नदी के तट पर गौदुहा आसन करते हुए, उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और वह अरिहंत बन गए।भगवान महावीर के केवल ज्ञान प्राप्त करते हि उनके साधना काल की अवधि पूरी हो गई, वह परम तत्व केवल ज्ञान को पा गए।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

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