वंदना टेटे

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वंदना टेटे (जन्मः 13 सितम्बर 1969) एक भारतीय आदिवासी लेखिका, कवि, प्रकाशक, एक्टिविस्ट और आदिवासी दर्शन ‘आदिवासियत’ की प्रबल पैरोकार हैं। सामुदायिक आदिवासी जीवनदर्शन एवं सौंदर्यबोध को अपने लेखन और देश भर के साहित्यिक व अकादमिक संगोष्ठियों में दिए गए वक्तव्यों के जरिए उन्होंने आदिवासी विमर्श को नया आवेग प्रदान किया है। आदिवासियत की वैचारिकी और सौंदर्यबोध को कलाभिव्यक्तियों का मूल तत्त्व मानते हुए उन्होंने आदिवासी साहित्य को ‘प्रतिरोध का साहित्य’ की बजाय ‘रचाव और बचाव’ का साहित्य कहा है। आदिवासी साहित्य की दार्शनिक अवधारणा प्रस्तुत करते हुए उनकी स्थापना है कि आदिवासियों की साहित्यिक परंपरा औपनिवेशिक और ब्राह्मणवादी शब्दावलियों और विचारों से बिल्कुल भिन्न है। आदिवासी जीवनदृष्टि पक्ष-प्रतिपक्ष को स्वीकार नहीं करता। आदिवासियों की दृष्टि समतामूलक है और उनके समुदायों में व्यक्ति केन्द्रित और शक्ति संरचना के किसी भी रूप का कोई स्थान नहीं है। वे आदिवासी साहित्य का ‘लोक’ और ‘शिष्ट’ साहित्य के रूप में विभाजन को भी नकारती हैं और कहती हैं कि आदिवासी समाज में समानता सर्वोपरि है, इसलिए उनका साहित्य भी विभाजित नहीं है। वह एक ही है। वे अपने साहित्य को ‘ऑरेचर’ कहती हैं। ऑरेचर अर्थात् ऑरल लिटरेचर। उनकी स्थापना है कि उनके आज का लिखित साहित्य भी उनकी वाचिक यानी पुरखा (लोक) साहित्य की परंपरा का ही साहित्य है। उनकी यह भी स्थापना है कि गैर-आदिवासियों द्वारा आदिवासियों पर रिसर्च करके लिखी जा रही रचनाएं शोध साहित्य है, आदिवासी साहित्य नहीं। आदिवासियत को नहीं समझने वाले हिंदी-अंग्रेजी के लेखक आदिवासी साहित्य लिख भी नहीं सकते।

आरंभिक जीवन, शिक्षा और परिवार

वंदना सिमडेगा जिले की गरजा पहाड़ टोली गांव की रहने वाली हैं। उनके पिता सुरेशचंद्र टेटे भारतीय फौज में थे जिनका देहांत हो चुका है। मां रोज केरकेट्टा देश की जानी-मानी सुख्यात आदिवासी लेखिका, शिक्षाविद और आंदोलनकारी हैं। सोनल प्रभंजन टेटे उनका एकमात्र भाई है जो भारत सरकार के बीमा उपक्रम न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी, रांची में प्रबंधक पद पर कार्यरत है। झारखंड आंदोलन के संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार, पत्रकार, नाट्यकर्मी और फिल्मकार अश्विनी कुमार पंकज से 1992 में उन्होंने प्रेम विवाह किया जिससे उनके आयुध पंकज और अटूट संतोष दो बच्चे हैं। अश्विनी कुमार पंकज अवर्ण गैर-आदिवासी हैं और मूलतः बिहार के रहने वाले हैं। वंदना टेटे के नाना प्यारा केरकेट्टा खड़िया आदिवासी समुदाय के पहले बौद्धिक और सांस्कृतिक अगुआ थे। झारखंडी और खासकर आदिवासी समुदायों के अधिकार और विकास के लिए जिन्होंने आजीवन राजनीतिक मोर्चे पर संघर्ष किया। वंदना अपने नाना और मां से मिली संघर्ष चेतना और सांस्कृतिक विरासत को राजनीतिक रूप से और सुसंगठित करते हुए आदिवासी भाषा, साहित्य, संस्कृति और पहचान के सवालों को तल्ख रूप से आगे बढ़ा रही हैं।

आरंभिक शिक्षा इन्होंने सिमडेगा से ली जबकि मैट्रिक तक की पढ़ाई गुमला के उसुलाईन कॉन्वेंट गर्ल्स हाई स्कूल में की। रांची विश्वविद्यालय, रांची से कला संकाय से स्नातक करने के बाद स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए मनोविज्ञान में दाखिला लिया, परंतु उसे अधूरा छोड़कर उन्होंने ‘समाज कार्य (महिला एवं बाल विकास)’ में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की।

आपका बचपन और प्रारंभिक जीवन सिमडेगा, सिसई, जमशेदपुर और रांची में गुजरा। मां रोज केरकेट्टा का जीवन बहुत संघर्षमय था और आजीविका के लिए उन्हें बार-बार स्थान बदलना पड़ता था। इस कारण मां के अभिभावकत्व और देख-रेख में पली-बढ़ी वंदना के शुरुआती दिन झारखंड के अनेक शहरों में बीते। उनकी मां जब 1981 में स्थायी रूप से रांची विश्वविद्यालय, रांची के जनजातीय भाषा विभाग में आ गयीं तभी जाकर उनके परिवार का यायावर जीवन स्थिर हुआ।

आदिवासी एक्टिविस्ट और परफॉर्मर

लेखन, परफॉरमेंस और एक्टिविस्ट कैरियर की शुरुआत उन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन में ही कर दी थी जब वे इंटर में पढ़ रही थीं। कविताएं-गीत लिखना, गाना और नृत्य-संगीत तो उनके सामुदायिक आदिवासी जीवनशैली का नैसर्गिक स्वभाव था। लेकिन इसी के साथ उन्होंने अभिनय को भी अपनाया और जमशेदपुर के एक नाट्य समूह, जो कि किसी भूमिगत वामपंथी दल से संबद्ध था, के साथ जुड़कर नुक्कड़ नाटक करने लगीं। बाद में रांची के उलगुलान संगीत नाट्य दल के साथ अभिन्न हो गईं और हिंदी, खड़िया व नागपुरी भाषा में हुए कई नुक्कड़ नाट्य प्रस्तुतियों के सैंकड़ों प्रदर्शनों में बतौर अभिनेत्री व गायिका परफॉरमेंस किया। कई नाट्य कार्यशालाओं का आपने निर्देशन-संचालन किया है और अपने नाट्यकर्म के जरिए महिला व आदिवासी सवालों पर एक नई रंगभाषा को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

सिसई में रहते हुए ही आपने खड़िया समुदाय के वरिष्ठ और युवा संगीतकारों, नर्तकों और गायकों को लेकर एक खड़िया संगीत दल बनाया। यह खड़िया संगीत दल विभिन्न सामुदायिक सांस्कृतिक अवसरों पर परफॉरमेंस करने के साथ-साथ नियमित रूप से आकाशवाणी रांची से आपकी अगुवाई में पारंपरिक पुरखा खड़िया गीत-संगीत के कार्यक्रम प्रस्तुत किया करता था। इस खड़िया संगीत दल की विशेष प्रस्तुतियां आज भी झारखंड और देश के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर होती रहती हैं। पारंपरिक खड़िया गीत-संगीत और नृत्य की आप एक बेहतरीन गायिका और कलाकार हैं।

भाषायी संघर्ष और उपलब्धि

नवगठित झारखण्ड राज्य में भी झारखंडी भाषाओं और साहित्य की बेदखली के खिलाफ नवंबर 2003 में आदिवासी व देशज लेखकों, भाषाविदों, संस्कृतिकर्मियों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के संगठन ‘झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ की स्थापना की। जिसका पहला महाजुटान 2006 में हुआ। जिसमें देश भर से शामिल 600 से अधिक देशज व आदिवासी संस्कृतिकर्मियों ने मार्गदर्शी सिद्धांत, संविधान और कार्यक्रम गृहित करते हुए ‘अखड़ा’ को देशव्यापी संगठन का स्वरूप दिया। वंदना टेटे इसकी संस्थापक महासचिव चुनी गईं।

झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा को समुदाय के सहयोग से नेतृत्व करते हुए टेटे ने झारखंडी भाषा, संस्कृति, साहित्य और अस्मिता के सवाल को नया उभार प्रदान किया। धरना, प्रदर्शन और रैलियों को आयोजित करते हुए अखड़ा ने सरकार और समाज का ध्यान खींचा। जिससे झारखंडी भाषाओं में गोतिया, संगोम, आंखाइन आदि दर्जन भर नये पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत हुई, तो लुआठी, सेड़ा सेतेंग, तारदी आदि पुरानी पत्र-पत्रिकाओं के विस्तार में व्यापकता आई।

अखड़ा संगठन ने विरोध के साथ-साथ सृजानत्मकता को नया आवेग देने के लिए अनेक साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यशालाओं, सेमिनारों और वैचारिक गोष्ठियों के श्रृंखलाबद्ध आयोजन झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, ओड़िसा में किये। साथ ही असम, अंडमान, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली सहित समूचे देश के साहित्यिक और अकादमिक जगत में आदिवासी भाषा-साहित्य के विमर्श को संगठित और दिशाबद्ध करने का प्रयास किया।

अगस्त 2011 में झारखंडी भाषाओं को द्वितीय राजभाषा का संवैधानिक दर्जा देने के सवाल पर अखड़ा ने अन्य कई संगठनों का साथ लेते हुए झारखंड विधानसभा को घेरा। जिसके परिणामस्वरूप अर्जुना मुंडा की तत्कालीन राजग सरकार ने झारखंड की पांच आदिवासी भाषाओं - मुंडारी, हो, खड़िया, संताली व कुड़ुख और चार देशज भाषाओं - कुड़मालि, खोरठा, नागपुरी व पंचपरगनिया को द्वितीय राजभाषा के रूप में मंजूरी दी। आजादी के बाद देश में यह पहली बार हुआ कि किसी सांस्कृतिक संगठन ने भाषा के सवाल पर विधानसभा को घेरा और राज्य ने सामुदायिक दबाव में नौ देशज-आदिवासी भाषाओं को द्वितीय राजभाषा के रूप में स्वीकार किया।

12 से 14 मार्च 2012 को अखड़ा ने देश का पहला तीन दिवसीय आदिवासी-दलित नाट्य समारोह और आदिवासी-दलित रंगभाषा पर दो दिवसीय सिम्पोजियम का आयोजन किया।

14-15 जुलाई को अखड़ा ने रांची में ही ‘आदिवासी दर्शन और समकालीन आदिवासी साहित्य सृजन’ पर दो दिवसीय अंतर्देशीय सेमिनार किया। इस सेमिनार ने पहली बार आदिवासी साहित्य की सैद्धांतिकी को आदिवासी दर्शन का अभिन्न अंग मानते हुए 15 सूत्री ‘आदिवासी साहित्य का रांची घोषणा पत्र’ जारी किया।

अखड़ा संगठन की एक और बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने आदिम जनजातियों के भाषाओं - असुरी बिरहोड़ी, मालतो, बिरजिया, परहिया आदि - के संरक्षण और प्रसार के लिए नई जमीन तैयार की। सरकार और समाज को सचेत किया। झारखण्ड राज्य के नौ आदिम आदिवासी समुदायों का पहला सामूहिक भाषायी-साहित्यिक सम्मेलन अगस्त 2013 में रांची में हुआ जिसके फलस्वरूप उनका पहला काव्य संकलन ‘आदिम राग’ प्रकाशित हो पाया। जबकि असुरों के पारंपरिक और नये गीतों का संकलन ‘असुर सिरिंग’, जो किसी भी आदिम समुदाय का पहला काव्य संग्रह है, 2010 में प्रकाशित हो चुका है।

पत्रकारिता, प्रकाशन और साहित्य सृजन

पत्रकारिता

आपकी पहली खड़िया कविता अविभाजित झारखंड (बिहार) के ‘आदिवासी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई जो राज्य सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा प्रकाशित होता था। उन दिनों एकमात्र यही पत्रिका थी जिसमें आदिवासी भाषा का साहित्य छपता था। रांची और बिहार-झारखंड की पत्र-पत्रिकाएं तब भी आदिवासी रचानाकारों को नहीं छापती थी, आज भी नहीं छापती हैं। आगे चलकर हिन्दी एवं खड़िया में आपके लेख, कविताएं, कहानियां स्थानीय व राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं आकाशवाणी रांची, दूरदर्शन रांची (झारखंड) से लोकगीत, वार्ता व साहित्यिक रचनाएं प्रसारित हुईं और हो रही हैं।

नब्बे के दशक में जमशेदपुर से प्रकाशित ‘तलाश’ वैचारिक-साहित्यिक पत्रिका से आपने पत्रकारिता की शुरुआत की और लगभग दो वर्षों तक रांची से प्रकाशित झारखण्ड आंदोलन की राजनीतिक पत्रिका ‘झारखण्ड खबर’ की उप-संपादक रहीं।

देशज-आदिवासी प्रकाशन संस्थान की स्थापना

भारत के मुख्यधारा की पत्र-पत्रिकाओं में आदिवासी रचनाओं के लिए कोई जगह नहीं थी। बिहार सहित देश की हिन्दी एवं अन्य सभी प्रादेशिक भाषाओं में आदिवासी साहित्यकार उपेक्षित थे। इस उपेक्षा और भेदभाव के खिलाफ झारखंडी भाषाओं के देशज और आदिवासी समुदाय के लेखक झारखंड आंदोलन के दौरान पचास के दशक में संगठित हो चुके थे और झारखंड आंदोलन को अभिव्यक्ति और प्रसार देने के लिए अनेक पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत व्यक्तिगत व सामुदायिक स्तर पर करते रहे थे। वंदना टेटे ने इसी परंपरा को बढ़ाते हुए आदिवासी-देशज पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के प्रकाशन की पहल की। झारखंड के आदिवासी और देशज लेखकों को संगठित करते हुए उन्होंने अपने नाना के नाम पर जुलाई 2002 में स्थापित ट्रस्ट ‘प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन’ से पुस्तकों का प्रकाशन आंरभ किया। झारखंड की देशज-आदिवासी और हिन्दी भाषाओं में फाउंडेशन अब तक सौ से ज्यादा पुस्तकें छाप चुकी है। यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने प्रकाशन कार्य के लिए अनुदान की बजाय प्रोफेशनली समुदाय पर निर्भर रहना स्वीकार किया। इस अर्थ में वे भारत की पहली और एकमात्र आदिवासी प्रकाशन संस्थान की नेतृत्वकर्ता हैं, जो विभिन्न आदिवासी और देशज भाषाओं में साहित्य प्रकाशित कर रही हैं।

अगस्त 2014 में उन्होंने झारखंड के ही खड़िया समुदाय के लेखक और मानवाधिकार एक्टिविस्ट ग्लैडसन डुंगडुंग की पार्टनरशिप में देश की पहली व्यावसायिक मीडिया संस्थान ‘बिर बुरु ओम्पाय मीडिया ऐंड इंटरटेनमेंट’ लिमिटेड कंपनी की स्थापना की है। जिसकी ओर से फुल लेंथ फीचर फिल्म ‘सोनचांद’ के निर्माण की प्रक्रिया जारी है।

देशज-आदिवासी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन

सामाजिक विमर्श की पत्रिका ‘समकालीन ताना-बाना’ और बाल पत्रिका ‘पतंग’ का प्रकाशन-संपादन किया। जून 2004 से झारखण्ड की पहली बहुभाषायी त्रैमासिक पत्रिका ‘झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ और 2005 से अपनी आदिवासी मातृभाषा खड़िया में मासिक पत्रिका ‘सोरिनानिङ’ (आरएनआई निबंधन से पूर्व ‘साःतोड) का संपादन-प्रकाशन आरंभ किया। ‘झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ भारत की एकमात्र सामुदायिक पत्रिका है जो बिना किसी देशी-विदेशी सरकारी व गैर-सरकारी वित्तीय अनुदान के निरंतर छप रही है। इस बहुभाषिक पत्रिका में मुंडारी, संथाली, हो, खड़िया, कुड़ुख, मालतो, असुरी, बिरहोड़ी आदिवासी और नागपुरी (सादरी), खोरठा, पंचपरगनिया व कुड़मालि क्षेत्रीय भाषाओं सहित हिन्दी में देशज-आदिवासी साहित्यकारों की साहित्यिक और वैचारिक रचनाएं प्रकाशित होती है। सितंबर 2006 से आपने एक रंगीन नागपुरी मासिक ‘जोहार सहिया’ का प्रकाशन शुरू किया, जो अपने प्रकाशन के तीसरे महीने ही रांची झारखंड से लेकर अंडमान तक फैले हुए झारखंडी देशज व आदिवासी समुदायों की सबसे लोकप्रिय और 12 हजार प्रतियों के साथ सर्वाधिक प्रसार वाली पत्रिका बन गयी।

प्रकाशित पुस्तकें

  1. ‘पुरखा लड़ाके’ (आदिवासी इतिहास/संपादित), 2005
  2. ‘किसका राज है’ (आदिवासी-महिला मुद्दों पर वैचारिक आलेखों का संग्रह), 2009
  3. ‘झारखंड एक अंतहीन समरगाथा’ (आदिवासी इतिहास/सहलेखन), 2010
  4. ‘असुर सिरिंग’ (असुर गीत/सुषमा असुर के साथ), 2010
  5. ‘पुरखा झारखंडी साहित्यकार और नये साक्षात्कार’ (देशज-आदिवासी साहित्यकारों का परिचय/संपादित), 2012
  6. ‘आदिम राग’, 2013
  7. ‘आदिवासी साहित्यः परंपरा और प्रयोजन’ (आदिवासी दर्शन और साहित्य), 2013
  8. 'आदिवासी दर्शन कथाएं' (सहलेखन), 2014
  9. ‘कोनजोगा’ (हिंदी कविता संग्रह), 2015
  10. 'एलिस एक्का की कहानियां' (सं.) 2015
  11. 'आदिवासी दर्शन और साहित्य' (सं.) 2015
  12. 'वाचिकता: आदिवासी साहित्य एवं सौंदर्यबोध', 2016
  13. 'लोकप्रिय आदिवासी कहानियां' (सं.) 2016
  14. 'लोकप्रिय आदिवासी कविताएं' (सं.) 2016
  15. 'प्रलाप' (1935 में प्रकाशित भारत की पहली हिंदी आदिवासी कवयित्री सुशीला सामद का प्रथम काव्य संकलन), (सं.), 2017

सम्मान

  • आदिवासी पत्रकारिता के लिए झारखंड सरकार का राज्य सम्मान 2012
  • संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 2013 में सीनियर फेलोशिप

संप्रति

झारखण्ड के आदिवासी एवं देशज भाषा-साहित्य एवं संस्कृति के संरक्षण, संवर्द्धन और विकास के लिए ‘झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ और ‘प्यारा केरकेट्टा फाउण्डेशन’ के साथ सृजन व संघर्षरत।

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ