विधि और जनमत

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विधि (लॉ) सामाजिक नियंत्रण की क्रिया है। यह नियंत्रण आचार व्यवहार के वे अधिकृत नियम हैं जो सामाजिक जीवन में सहज सुविधा और सुलभ शांति प्रस्तुत कर उसकी रूपरेखा निर्धारित करते हैं। विधि मनुष्यकृत है, उसकी सुविधा हेतु साधन मात्र है, कोई दैवी अथवा बाह्य तथ्य नहीं। फलत: मनुष्य विधि के लिए नहीं वरन्‌ विधि मनुष्य के लिए है - यद्यपि विधि समाज को नियंत्रित करती है, तथापि यह नियंत्रणबंधन समाज की इच्छा के अनुसार होता है। समाज की सामूहिक इच्छा सामाजिक नियंत्रीकरण में हर देश काल में किसी न किसी रूप में सदा एक मान्य शक्ति रही है। जनमत वह संगठित शक्ति है जो समाज के सतत मान्य परंपरागत आदर्शों और अनुभूतियों का प्रतिरूप होती है एवं उस समाज की तात्कालिक भावनाओं का भी प्रतिनिधित्व करती है। जनमत प्रवैगिक और स्थैतिक दो प्रकार का होता है। प्रवैगिक जनमत परंपरागत रूढ़ियों तथा आदर्श और व्यवहार पर आधारित होता है, स्थैतिक जनमत स्थायी भावना उद्गारों एवं उनके विज्ञापन से संबंधित होता है। इसलिए प्रति दिन निरंतर नया रूप धारण करता रहता है, धर्म की पुकार, अनन्य साहस का आकर्षण या प्रेरणात्मक साहित्य का लालित्य देश काल के अनुसार समय समय पर जनमत बनाने में सहायक या साधन रूप रहे हैं। बीसवीं शताब्दी के यंत्रयुग में पत्रकारिता जनमत को मुखरित करने में मुख्य: भागी है। यह अकाट्य सत्य है कि सामाजिक संस्थाओं का निर्माण समाज के विश्वास और अनुभूतियों पर निर्भर रहा है। विधि सामाजिक सुविधा हेतु नियंत्रणप्रणाली होने के नाते एक सामाजिक संस्था है। इसी कारण विधिसंचालक अथवा विधिकार सदा जनमत से बल प्राप्त करते हैं। विधि के संपर्क में जनमत का अभिप्राय है लोक सजगता एवं सतर्कता जो विधि का औचित्य संतुलित कर यह निश्चित कर सके कि कौन विधिनियम हितकारी है और निर्मित करने योग्य है और कौन विधिनियम लोक हितकारी नहीं है इसलिए निष्कृत कर देने योग्य है। इस जाग्रत अवस्था का जनमत विधि का आधार होना चाहिए। किंतु ऐसा प्राय: होता नहीं, बहुधा त्रुटिपूर्ण जनमत विधि का आधार होता है। ऐसे भ्रमात्मक जनमत का कारण कभी अज्ञान और कभी भय दोनों ही होते हैं-जैसे प्राचीन काल में दासप्रथा की विधि जनमत पर अवश्य निर्मित थी किंतु यह जनमत त्रुटिपूर्ण, अज्ञान और भय मिश्रित आधार था। ऐसे मत को वास्तविक अर्थ में जनमत कहना ही व्यर्थ है। सजग जिज्ञासापूर्ण मत ही वास्तविक जनमत है जो विधि के संबंध में क्रियात्मक हो सकता है। इसका अभाव प्राय: इसलिए होता है कि हर देश या समाज में इतनी तार्किक सजगता नहीं होती। अधिकतर मनुष्य चिंतन द्वारा नहीं वरन्‌ रूढ़िगत अभ्यासों और भावनाओं द्वारा कार्य करते हैं। ऐसी स्थिति में बौद्धिक विवेचना के लिए स्थान ही नहीं होता-बहुधा ऐसे भी दृष्टांत मिलते हैं जहाँ विधिनिर्माण अथवा परिवर्तन जनसाधारण के बहुमत के नितांत विरुद्ध हुए हैं। यह विधिनियम एक या कुछ थोड़े से व्यक्तियों की चेष्टा से निर्मित हुए। कहीं यह इसलिए संभव हुआ कि इन गिने चुने व्यक्तियों या एक व्यक्ति का व्यक्तित्व इतना ओजपूर्ण था कि वह प्रभावशाली बना, कहीं संपूर्ण समाज का इतना दुर्बल स्तर था कि वे सफल हो गए। भारत में ब्रिटिश राज्य में भारतीयों के प्रति हानिकारक विधियों का निर्माण होता रहा, इसका कारण देश की सामूहिक दुर्बलता थी। तुर्किस्तान में कमाल पाशा अतातुर्क ने अकेले विधिसंचालन किया जो देश की भावनाओं के विरुद्ध था, उसका कारण उसका निजी व्यक्तित्व था। इतना अवश्य है कि अधिकतर ऐसे व्यक्तियों को देश का जनमत न प्राप्त होते हुए भी काल का या युग का मत प्राप्त होता है। इस युगकालीन बहुमत के आधार पर ही इनकी विधिरचना सफल हो पाती है। अब्राहम लिंकन के साथ दक्षिणी अमरीका के भूस्वामी नहीं थे किंतु युग की वाणी थी, जिसके बल पर दासप्रथा मिटाने की विधि वह बना सके। अनुभव से ज्ञात होता है कि युग की वाणी या शताब्दी का जनमत देश या स्थान के जनमत से अधिक प्रभावशील, शक्तिमान्‌ और क्रियात्मक होता है। यह कदापि संभव नहीं कि देश, काल दोनों के बहुमत के विरोध में कोई विधिनिर्मण सफल हो से। भारत के इतिहास में अति विद्वान्‌ और अति असफल सम्राट् मोहम्मद तुगलक का दृष्टांत इस बात का द्योतक है। उसके सुधार अति मौलिक थे, किंतु देश और काल दोनों के बहुमत से परे थे इसीलिए वे असफल हुए। प्राय: देश में समुचित प्रतिनिधित्ववाले विधानमंडल की अनुपस्थिति भी विधि में जनमत का अभाव उत्पन्न कर देती है। ऐसी स्थिति विद्रोहात्मक होती है। फ्रांस और अमरीका दोनों देशों में इसी प्रकार उचित प्रतिनिधित्वयुक्त विधानमंडल के अभाव के कारण जनमत के विरुद्ध विधिनिर्माण होता रहा जिसका अंत विद्रोह और विप्लव में हुआ। इन दृष्टांतों से सिद्ध है कि अनेक स्थितियों में, वास्तविक अर्थ में, जनमत विधि का आधार नहीं भी होता।

इसके अतिरिक्त यह भी सत्य है कि यथार्थ में किसी भी समाज में सामाजिक जीवन में क्रियाशील भाग लेनेवाले व्यक्ति पूर्ण समुदाय नहीं, थोड़े से लोग ही होते हैं। विधिनिर्माण में इन्हीं का मत प्रभावात्मक होता है। वैसे इस सक्रिय समूह को अगणित अक्रिय सामाजिक इकाइयों का सदा भय बना रहता है कि कहीं इनकी कोई चेष्टा उस बृहत्‌ जनसमाज की मान्यताओं के इतने विरुद्ध न हो कि वह विद्रोह कर उठे। अतएव साधारणतया जिस जनमत के आधार पर विधिरचना होती है वह सामाजिक शासकों के बौद्धिक चिंतन और जनसाधारण के मनोभावों का एक अद्भुत मिश्रण या समझौता सा होता है। इस समझौते का रूप निश्चय ही दोनों वर्गों की निजी शक्ति पर निर्भर करता है। ब्रिटेन की जनसाधारण चेतना इतनी सजग थी कि नई तिथिपत्री तक का विरोध हुआ और भारत में ब्रिटिश राज्य में भारतीयों के विरुद्ध बनी किसी विधि का अथवा स्वराज्य में भारतीय परंपरा के नितांत विरुद्ध बनी विवाह, संयुक्त परिवार और दत्तक अधिकार संबंधी विधि का भी विरोध नहीं हुआ। इसका कारण केवल भारतीय जनसाधारण की अक्रियात्मक सुप्त मनोदशा है। यहाँ पुन: इन विधियों के मूल में देश का नहीं युग के जनमत का बल स्पष्ट है।

प्रश्न का दूसरा रूप यह भी है कि अनेक कारण और प्रेरणाएँ एक ओर अपना महत्व रखती हैं और मनुष्य की निजी स्वार्थ प्रेरणा दूसरी और अपना प्रभाव और महत्व रखती है। व्यक्ति ही विधिकर होते हैं और विधिरचना के समय उनका स्वभाव मनुष्य का ही होता है, वीतरागी का नहीं। इतिहास इसका साक्षी है कि आदिकाल से विधिनियमों से व्यक्तिविशेष या समूहविशेष का हित और स्वार्थ सदा अंकित रहता है। विधिकार अपने निजी समूह विशेष का हित लक्ष्य रूप बना होता है। मध्यकालीन शताब्दी युग भूस्वामियों का था, उस काल की विधिरचना में भूस्वामियों के हित पूर्णतया सुरक्षित हैं। उपनिवेशों और परतंत्र भागों की विधि में श्वेत वर्ग के स्वार्थरक्षक नियम हैं। यह समूह कभी सामाजिक और कभी राजनीतिक वर्ग के होते हैं जिनके वश में विधिरचना होती है किंतु इन समुदायों का निजी स्वार्थ का दृष्टिकोण भी तत्कालीन वातावरण, एवं युग की वाणी के अनुरूप ही होना स्वाभाविक है। अतएव अंत में विधि का रूप सदा किसी न किसी प्रकार युग, काल अथवा देश के वातावरण और मतानुकूल ही निर्धारित होता है तथा यह स्पष्टतया सिद्ध है कि विधि का आधार जनमत ही है।