सुभाषित

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सुभाषित (सु + भाषित = सुन्दर ढंग से कही गयी बात) ऐसे शब्द-समूह, वाक्य या अनुच्छेदों को कहते हैं जिसमें कोई बात सुन्दर ढंग से या बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से कही गयी हो। सुवचन, सूक्ति, अनमोल वचन, आदि शब्द भी इसके लिये प्रयुक्त होते हैं। जैसे-

यस्य कस्य तरोः मूलं येन केन अपि घर्षितम् ।
यस्मै कस्मै प्रदातव्यं यत् वा तत् वा भविष्यति ॥
अर्थ : इस या उस वृक्ष का मूल ले लिया, जिससे तिससे घिस लिया,
जिसको तिसको दे दिया (पिला दिया) तो परिणाम भी जैसा-तैसा ही मिलेगा।
चिंतायाश्च चितायाश्च बिंदुमात्रं विशिष्यते ।
चिता दहति निर्जीवं चिंता दहति जीवनम् ॥ (-- समयोचितपद्यमालिका )
( 'चिंता' और 'चिता' में केवल एक बिन्दु का (छोटा सा) अन्तर है।
किन्तु चिता तो निर्जीव (मरे हुए) को जलाती है जबकि चिंता जीवन को ही जलाती रहती है।)

सुभाषित के लक्षण (परिभाषा)

हर्षचरित में सुभाषित की निम्नांकित परिभाषा दी गयी है-

पुराणेष्वितिहासेषु तथा रामायणादिषु।
वचनं सारभूतं यत् तत् सुभाषितमुच्यते॥

माहात्म्य

पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥

पृथ्वी पर जल, अन्न और सुभाषित - ये तीन रत्न है। (किन्तु) मूढ लोग पत्थर के टुकडे को "रत्न" संज्ञा से पहचानते हैं !

सुभाषितमयैर्द्रव्यैः संग्रहं न करोति यः।
सोऽपि प्रस्तावयज्ञेषु कां प्रदास्यति दक्षिणाम्।।

(यः सुभाषित-मयैः द्रव्यैः संग्रहं न करोति सः अपि प्रस्ताव-यज्ञेषु कां दक्षिणाम् प्रदास्यति ?)

भावार्थ : सुभाषित कथन रूपी संंपदा का जो संग्रह नहीं करता वह प्रसंगविशेष की चर्चा के यज्ञ में भला क्या दक्षिणा देगा? समुचित वार्तालाप में भाग लेना एक यज्ञ है और उस यज्ञ में हम दूसरों के प्रति सुभाषित शब्दों की आहुति दे सकते हैं। ऐसे अवसर पर एक व्यक्ति से मीठे बोलों की अपेक्षा की जाती है, किंतु जिसने सुभाषण की संपदा न अर्जित की हो यानी अपना स्वभाव तदनुरूप न ढाला हो वह ऐसे अवसरों पर औरों को क्या दे सकता है ?

संसारकटुवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे।
सुभाषितरसास्वादः संगतिः सुजने जने॥

(संसार-कटु-वृक्षस्य अमृत-उपमे द्वे फले, सुभाषित-रस-आस्वादः सुजने जने संगतिः।)

भावार्थ : संसार रूपी कड़ुवे पेड़ से अमृत तुल्य दो ही फल उपलब्ध हो सकते हैं, एक है मीठे बोलों का रसास्वादन और दूसरा है सज्जनों की संगति। यह संसार कष्टों का भंडार है, पग-पग पर निराशाप्रद स्थितियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे संसार में दूसरों से कुछएक मधुर बोल सुनने को मिल जाएं और सद्व्यवहार के धनी लोगों का सान्निध्य मिल जाए तो आदमी को तसल्ली हो जाती है। मीठे बोल और सद्व्यवहार की कोई कीमत नहीं होती है, परंतु ये अन्य लोगों को अपने कष्ट भूलने में मदद करती हैं। कष्टमय संसार में इतना ही बहुत है।

भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाण-भारती
तस्माद्धि काव्यम् मधुरं तस्मादपि सुभाषितम्

अर्थ : भाषाओं में मुख्य, मधुर और दिव्य भाषा संस्कृत है। उसमें भी काव्य मधुर है। और काव्य में भी सुभाषैत।

द्राक्षाम्लानमुखी जाता, शर्करा चाश्मगतां गता।
सुभाषितरसस्याग्रे सुधा भीता दिवंगता॥

अर्थ : सुभाषितरस के आगे द्राक्षा (अंगूर) का मुख म्लान (खट्टा) हो गया, शर्करा खड़ी हो गयी और अमृत डरकर स्वर्ग चली गयी।

सुभाषित संग्रह

नीचे कुछ सुभाषित संग्रहों की सूची दी गयी है:

क्रमांक रचना संग्रहकर्ता काल टीका
1 सुभाषितरत्नकोश विद्याकर १२वीं शताब्दी ये बौद्ध विद्वान थे। इनकी कृति में १३०० ई के पहले के कवियों के पद्य
समाहित हैं।इसमें अमरूक और भर्तृहरि से बहुत से श्लोक लिये गये हैं।[१][२]
2 सुभाषितावली कश्मीर के वल्लभदेव प्रायः ५वीं शताब्दी ३६० कवियों के ३५२७ पद्यों का संग्रह[१]
3 सदुक्तिकामृत श्रीधरदास १२०५ ४८५ कवियों (मुख्यतः बंगाल के) के २३८० पद्यों का संग्रह[१]
4 सूक्तिमुक्तावली जल्हण १३वीं शताब्दी ये दक्षिण भारत के राजा कृष्ण के मंत्री थे[१]
5 शार्ङ्गधर पद्धति शार्ङ्गधर १३६३ ई ४६८९ पद्य हैं।[१]
6 पद्यावली अज्ञात - १२५ कवियों के ३८६ पद्य [१]
7 सूक्तिरत्नहार सूर्यकलिंगारय १४वीं शताब्दी -
8 पद्यवेणी वेणीदत्त - १४४ कवियों के पद्य [१]
9 सुभाषितानिवि वेदान्त देशिक १५वीं शताब्दी दक्षिण भारतीय थे।[१]
10 पद्यरचना लक्ष्मण भट्ट १७वीं शताब्दी के आरम्भ में ७५६ पद्य[१]
11 पद्य अमृत तरंगिणी हरिभास्कर १७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध -[१]
12 सूक्तिसौन्दरय सुन्दरदेव १७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध -[१]

कुछ उदाहरण

ऋग्वेद की कुछ सूक्तियाँ ;

<poem>

विद्वान् पथः पुरएत ऋजु नेषति।

</poem>

विद्वान गण पुरोगामी होकर सरल पथ से मनुष्यों का नेतृत्व करें।

<poem>

इला सरस्वती मही तिस्त्रो देवीर्मयोभुवः।

</poem>

मातृभूमि, मातृसंस्कृति और मातृभाषा—ये तीनों सुखद होती हैं।

<poem>

उत्तिष्ठ ! जाग्रत ! प्राप्य वरान्निबोधत।

</poem>

उठो, जागो ! सद्गुरुओं द्वारा ज्ञान प्राप्त करो।

<poem>

यतेमहि स्वराज्ये।

</poem>

हम स्वराज्य के लिए प्रयत्न करते रहें।

<poem>

रयिं जागृवांसो अनुग्मन्।

</poem>

जागरुक जन ऐश्वर्य पाते हैं।
विजेतव्या लंका चरणतरणीयो जलनिधिः।
विपक्षः पौलस्त्यो रणभुवि सहायाश्च कपयः।
तथाप्येको रामः सकलमवधीद्राक्षसकुलं।
क्रियासिद्धिः सत्वे भवति महतां नोपकरणे ॥

भोजप्रबन्ध से उद्धृत यह पद्य मनुष्य के प्रयत्न का मूल्य प्रतिपादित करता है।

न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवन्निःश्रेयसावाप्तये।
स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुः धर्मोऽपि नोपार्जितः।
नरीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिंगितम्।
मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ॥

यह भर्तृहरि के वैराग्यशतक से लिया गया है।

शास्त्रं स्वधीतमपि तत्परिचिन्तनीयं।
प्रीतो नृपोऽपि सततं परिसेवनीयः।
अंके स्थिताऽपि तरुणी परिरक्षणीया।
शास्त्रे नृपे च युवतौ च कुतो वशित्वम् ॥

आजन्म विद्यारति, आजन्म सेवामनोभाव इत्यादि की महत्ता प्रदिपादित है॥

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसां।
उदारचरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम् ॥

इसमें भारतीय संस्कृति का मूल वसुधैवकुटुम्बकम् वर्णित है।

पुराणमित्येव न साधु सर्वं।
न चापि काव्यं नवमित्यवद्यं।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते।
मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ॥

अपने विवेक और बुद्धि से अपने कर्तव्य का निर्धारण करना चाहिये।

उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः।
दैवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति।
दैवं विहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या।
यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोत्र दोषः ॥

यह श्लोक गीता के कर्मण्येवाधिकारस्ते। मा फलेषु कदाचन " का ही दूसरा रूप लगता है।

सन्तः सदाभिगन्तव्या यदि नोपदिशन्त्यपि।
यास्तु स्वैरकथास्तेषां उपदेशा भवन्ति ताः ॥
अक्षराणि परीक्ष्यन्तां अम्बराडम्बरेण किम्।
शम्बुरम्बरहीनोपि सर्वज्ञः किं नु कथ्यते ॥
दानाय लक्ष्मीः सुकृताय विद्या।
चिन्ता परब्रह्मविनिश्चयाय।
परोपकाराय वचांसि यस्य।
वन्द्यस्त्रिलोकी तिलकः स एव ॥

सार्थक जीवन के आधार स्थम्भ यहाँ बताये गये हैं।

न मांसभक्षणे दोषः न मद्ये न च मैथुने।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥

मनुस्मृति का यह श्लोक सार्वकालीन है। इसको पढ़ने पर " धर्माऽविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ " - गीताचार्य का यह वचन स्मृतिपटल पर आता है।

सन्दर्भ

साँचा:टिप्पणीसूची

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

  1. १.०० १.०१ १.०२ १.०३ १.०४ १.०५ १.०६ १.०७ १.०८ १.०९ १.१० सन्दर्भ त्रुटि: अमान्य <ref> टैग; indology नामक संदर्भ की जानकारी नहीं है
  2. साँचा:Cite book