पहेली

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साँचा:स्रोतहीन किसी व्यक्ति की बुद्धि या समझ की परीक्षा लेने वाले एक प्रकार के प्रश्न, वाक्य अथवा वर्णन को पहेली (Puzzle) कहते हैं जिसमें किसी वस्तु का लक्षण या गुण घुमा फिराकर भ्रामक रूप में प्रस्तुत किया गया हो और उसे बूझने अथवा उस विशेष वस्तु का ना बताने का प्रस्ताव किया गया हो। इसे 'बुझौवल' भी कहा जाता है। पहेली व्यक्ति के चतुरता को चुनौती देने वाले प्रश्न होते है। जिस तरह से गणित के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, उसी तरह से पहेलियों को भी नज़रअन्दाज नहीं किया जा सकता। पहेलियां आदि काल से व्यक्तित्व का हिस्सा रहीं हैं और रहेंगी। वे न केवल मनोरंजन करती हैं पर दिमाग को चुस्त एवं तरो-ताजा भी रखती हैं।

परिचय एवं इतिहास

पहेलियों की रचना में प्राय: ऐसा पाया जाता है कि जिस विषय की पहेली बनानी होती है उसके रूप, गुण एवं कार्य का इस प्रकार वर्णन किया जाता है जो दूसरी वस्तु या विषय का वर्णन जान पड़े और बहुत सोच विचार के बाद उस वास्तविक वस्तु पर घटाया जा सके। इसे बहुधा कवित्वपूर्ण शैली में लिखा जाता है ताकि सुनने में मधुर लगे। यह परंपरा भारत देश में प्राचीन काल से प्रचलित है। ऋग्वेद के कतिपय मंत्रों का इस दृष्टि से उल्लेख किया जा सकता है। यथा एक मंत्र

'चत्वारि श्रंगा त्रयो अस्य पादा, द्वे शीर्षे सप्त हस्तासोऽस्य।
त्रिधा बद्धो वृषभो रौरवीति, महादेवो मर्त्या या विवेश:।।'

अर्थात् जिसके चार सींग हैं, तीन पैर हैं, दो सिर हैं, सात हाथ हैं, जो तीन जगहों से बँधा हुआ है, वह मनुष्यों में प्रविष्ट हुआ वृषभ यज्ञ है, शब्द करता हुआ महादेव है। इसका गूढ़ार्थ यह है कि यह वृषभ जिसके चार सींग चारों वेद है, प्रात:काल, मध्यान्ह और सांयकाल तीन पैर हैं, उदय और अस्त दो शिर हैं, सात प्रकार के छंद सात हाथ हैं। यह मंत्र ब्राह्मण और कल्परूपी तीन बंधनों से बँधा हुआ मनुष्य में प्रविष्ट है। महाभाष्यकार पतंजलि ने इसे शब्द तथा अन्य ने सूर्य भी बताया है। ऋग्वेद में प्रयुक्त 'बलोदयों' से यह बताया जाता है कि पहेलियाँ जनता की विकासोन्मुख् अवस्था के साथ ही विकसित हुई थीं।

महाभारत के अनवरत लेखन के समय वेदव्यास जी बीच बीच में कुछ सोचने के लिए कूट वाक्यों का उच्चारण किया करते हैं। उन्हें बिना भली भाँति समझे गणेश जी को भी लिपिबद्ध करने की आज्ञा न थी। इस तरह एक प्रकार से किंवदंती के अनुसार पहेलियों की आड़ कें ही दोनों को यथासमय यथासाध्य विश्राम व अवकाश सोचने समझने के निमित्त मिलता जाता था। अतएव बृहद महाभारत में पहेलियों के प्रतीक वाक्यांश अनेक स्थलों पर जिज्ञासुओं को दिखाई देते हैं।

संस्कृत में पहेली को 'प्रहेलिका' या 'प्रहेलि' कहते हैं- 'प्रहिलति अभिप्रायं सूचयतीति प्रहिल अभिप्राय सूचने क्वुन्दापि अत-इत्वं।' इसके पर्याय प्रवल्हिका, प्रवह्लि, प्रहेली, प्रह्लीका, प्रश्नदूती, तथा प्रवह्ली है। यह चित्र जाति का शब्दालंकार है जो च्युताक्षर, दत्ताक्षर तथा च्युत दत्ताक्षर भेदवाली अनेकार्थ धातुओं से युक्त यमकरंजित उक्ति हैं। प्रहेलिका का स्वरूप 'नानाधात्व गंभीरा यमक व्यपदेशिनी' है। भामह ने इसका खंडन किया है और कहा है कि यह शास्त्र के समान व्याख्यागम्य है (काव्यालंकार २/२०)। इनके अनुसार इसके आदि व्यख्याता रामशर्माच्युत हैं (काव्यालंकार २.१९)। 'साहियदर्पण' के प्रणेता विश्वनाथ ने इसे उक्तिवैचित्र्य माना है, अलंकार नहीं, क्योंकि इससे अलंकार के मुख्य कार्य रस की परिपुष्टि नहीं होती प्रत्युत इसमें विघ्न पड़ता है (साहित्यदर्पण १०.१७)। किंतु विश्वनाथ ने प्रहेलिका के वैचित्र्य को स्वीकार करते हुए उसके च्यताक्षरा, दत्ताक्षरा तथा च्युतादत्ताक्षरा तीन भेदों की चर्चा की है। आचार्य दंडी ने साहित्यदर्पणकार के इस मत को स्वीकार करते हुए प्रहेलिका को क्रीड़ागोष्ठी तथा अन्य पुरुषों ने व्यामोहन के लिए उपयोगी बताया है। दंडी व प्रहेलिका के १६ भेदों का उल्लेख किया है यथा- समायता, वंचिता, व्युत्क्रांता, प्रमुदिता, पुरुषा, संख्याता, प्रकल्पिता, नामांतिरिता, निभृता, संमूढा, परिहारिका, एकच्छन्ना, उभयच्छन्ना, समान शब्दासंमृढ़ा, समानरूपा तथा संकीर्णासरस्वतीकंठाभरण (काव्या. ३.१०६)। जैन साहित्य में भी पहेलियों की यह परंपरा कायम रही। इसमें हीयाली जैसी रचनाएँ पहेलियों की अनुरूपता की सूचक हैं। इनके १२वीं तथा १३वीं शताब्दी में मौजूद होन के प्रमाण मिले हैं। १४वीं से लेकर १९वीं शताब्दी तक जैन कवियों द्वारा लिखी गई पर्याप्त हीयालियाँ उपलब्ध हैं। राजस्थान की हीयालियाँ आड़ियाँ कहलाती हैं। संस्कृत की एक पहेली का नमूना इस प्रकार है-

'श्यामामुखी न मार्जारी द्विजिह्वा न सर्पिणी।
पंचभर्ता न पांचाली यो जानाति स पंडित:।।'

अर्थात् काले मुखवाली होते हुए बिल्ली नहीं, दो जीभवाली होते हुए सर्पिणी नहीं तथा पाँच पतिवाली होते हुए द्रौपदी नहीं है। उस वस्तु को जो जानता है वही पंडित है। (उत्तर-कलम)। कलम काले मुख की ही बहुधा होती है, जीभ बीच में विभाजित रहती है और पाँच उँगलियों से पकड़कर उससे लिखते हैं।

अंग्रेजी तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं में भी पहेलियों की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। 'बाइबिल' की पहेलियाँ बहुधा सृष्टि के रहस्यों के उद्घाटन की ओर संकेत करने के हेतु प्रसिद्ध हैं। अंग्रेजी में पहेली को 'रिडिल' अथवा 'एनिग्मा' कहते हैं जिसकी रचना विशेष रूप से छंदों में की गई है। इनमें अलंकारों के माध्यम से वास्तविक का अर्थ छिपाया गया रहता है। 'स्फिनिक्स' की पहेलियों का इस सबंध में उल्लेख किया जा सकता है। उसकी एक पहेली का उदाहरण इस प्रकार है- 'वह कौन सी वस्तु है जो प्रात: चार पैरों से, दो पहर दो पैरों से तथा संध्या समय तीन पैरों से टहलती हैं?' इस पहेली में स्फिनिक्स ने 'दिन' को आलंकारिक भाषा में 'मनुष्य जीवन' से संबोधित किया है। पहेलियाँ बनाना यूनानियों का प्रिय विषय था और इसकी प्रतियोगिता में पुरस्कार भी दिए जाते थे। ११वीं शताब्दी के सेलस, वासिलस मेगालामितिस तथा औनिकालामस नामक प्रसिद्ध यूनानी कवियों ने केवल पहेलियाँ ही लिखी थीं। भारत के समान यूनान में भी पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें पहेलियाँ बूझने पर ही लड़कियों का सफल व्यक्तियों के वरण के लिए प्रस्तुत किया जाता था। थीबन स्फीनिक्स पौराणिक कथा के अनुसार रानी जोकास्टा से विवाह करने के लिए पहेली प्रतियोगिता आयोजित की गई थी। यूनानी भाषा में ऐसी कथाएँ भी मिलती हैं जिनमें पहेली न बुझनेवाले को मौत के घाट उतारा जाता था। मध्यकाल के आम लैटिन कवियों ने छंदबद्ध पहेलियाँ बनाई थीं। पहेली तैयार करना प्राचीन हिब्रू कविता की भी एक विशेषता थी। मध्यकाल के अनेक यहूदी कवियों ने भी छंदबद्ध पहेलियाँ लिखी थीं। १३वीं शताब्दी के यहूदी कवि अल हरीजी ने अनक पहेलियाँ लिखी हैं। इसने चीनी को समझाने के लिए ४६ पंक्तियों की एक पहेली तैयार की है। इंग्लैड में स्विफ़्ट ने स्याही, कलम, पंखे जैसे विषयों पर कई पहेलियाँ रची हैं। बाद को शिलेर तथा अंग्रेजी के परवर्ती कवियों ने पहेलियों के निर्माण में कलात्मक एवं साहित्यिक सौंदर्य लाकर इन्हें मनोहर रूप प्रदान किया। फ्रांस में १७वीं शताब्दी में पहेली बनाना साहित्यिकों का प्रिय विषय बन गया था।

अफ्रीका तथा एशिया के अन्य देशों में भी पहेलियाँ का तैयार करने का प्रयत्न प्राचीन काल से चला आ रहा है। एक यूनानी पौराणिक कथा के अनुसार मिस्त्र के राजा ऐमेसिस तथा इथोपिया के राजा में पहेली प्रतियोगिता का उल्लेख है। पहेली को फारसी में 'चीस्तां' कहते हैं और पुरातन समय में ईरान में इसका प्रचलन था। चीनी भाषा में पहेली के दो रूप हैं, यथा- 'में-यू' (वस्तुओं की पहेली) और 'जू-मे' (शब्दों की पहेली)।

हिंदी में भी पहेलियों का व्यापक प्रचलन रहा है। इस संबंध में अमीर खुसरो की पहेलियों का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सता है। खुसरों की पहेलियाँ दो प्रकार की हैं। कुछ पहेलियाँ ऐसी हैं जिनमें उनकी वर्णित वस्तु को छिपाकर रखा गया है जो तत्काल स्पष्ट नहीं हाता। कुछ ऐसी हैं जिनकी बूझ-वस्तु उनमें नहीं दी गई होती। बूझ तथा बिन बूझ पहेली का उदाहरण क्रमश: इस प्रकार है-

बाला था जब सबको भाया, बढ़ा हुआ कुछ काम न आया।
खुसरो कह वीया उसका नाँव अर्थ करो नहिं छोड़ो गाँव।।

(उत्तर- वीया)

एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।।

(उत्तर- आकाश, मोती से संकेत तारों की ओर है)

मुकरी भी एक पकार की पहेली (अपन्हुति) है पर उसमें उसका बूझ प्रश्नोत्तर के रूप में दिया गया रहता है यथा- 'ऐ सखि साजन ना सखि...।' इस प्रकार का एक बार का उत्तर देने के कारण इस तरह की अपन्हुति का नाम कह-मुकरी पड़ गया।

हिंदी पहेलियों के संबंध में अब तक जो भी खोज कार्य हुए हैं उनमें पहेलियों का कई प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। इन वर्गीकरणों से स्पष्ट है कि हिंदी में इतने प्रकार की पहेलियों का प्रचलन है। विषयों के अनुसार पहेलियों को सात प्रमुख वर्गों में बाँटा जा सकता है, यथा: खेती-संबंधी (कुआँ, मक्के का भुट्टा), भोजन संबंधी (तरबूज, लाल मिर्च), घरेलू वस्तु संबंधी (दीया, हुक्का, सुई, खाट), प्राणि संबंधी (खरगोश, ऊँट,) अंग, प्रत्यंग सबंधी (उस्तरा, बंदूक)। हिंदी की अन्य क्षेत्रीय बोलियों यथा भोजपुरी, अवधी, बुंदेलखंडी, मैथिली आदि में भी पर्याप्त मात्रा में पहेलियाँ पाई जाती हैं।

नवीन युग में गणित को लोकप्रिय बनाने में जितना काम मार्टिन गार्डनरने किया शायद उतना किसी और ने नहीं किया। इन्होने साईंटिफिक अमेरिकन में बहुत सारे लेख पहेलियों के बारे में लिखे। यह बहुत ज्ञानवर्धक और मनोरंजक थे। मार्टिन गार्डनर ने आगे चल कर कई पुस्तकें भी लिखीं जिसमें कई पहेलियों के बारे में थीं। मार्टिन गार्डनर की पुस्तकों के अलावा पहेलियों की अन्य अच्छी पुस्तकें निम्न हैं,

  1. Vicious circle and infinity: an anthology of paradoxes by Patrick Hughes & George Brecht;
  2. The lady orthe tiger? and other logical puzzles by Raymond Smullyan;
  3. What is the name of the book? The riddle of Dracula and other logical puzzles by Raymond Smullyan;
  4. The Moscow Puzzles by Boris A. Kordemsky;
  5. Which way did the bicycle go? ... and other intriguing mathmatical mystries by Joseph De Konhauser, Dan Velleman, Stan Wagon; और हिन्दी में
  6. गणित की पहेलियां लेखक गुणाकर मुले।

यह सब बहुत अच्छी हैं। इसमे से पहली चार पेंग्विन ने तथा पांचवीं Mathematical Association of America Dolciani Mathematical Exposition no. 18 ने छापी है। इसमे से पांचवीं पुस्तक का स्तर ऊंचा है, थोड़ी गणित ज्यादा है।

पहेली खेल हमारी भारतीय संस्कृत द्वारा विकसित बड़ों द्वारा बताई गई एक गणितीय कहानी पर आधारित है, जो दिमाग को बहुत अच्छी तरह से खेलने में मदद करता है।