सांख्यकारिका

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सांख्यकारिका सांख्य दर्शन का सबसे पुराना उपलब्ध ग्रन्थ है। इसके रचयिता ईश्वरकृष्ण हैं। संस्कृत के एक विशेष प्रकार के श्लोकों को "कारिका" कहते हैं। सांख्यकारिकाओं का समय बहुमत से ई. तृतीय शताब्दी का मध्य माना जाता है। वस्तुत: इनका समय इससे पर्याप्त पूर्व का प्रतीत होता है।

इसमें ईश्वरकृष्ण ने कहा है कि इसकी शिक्षा कपिल से आसुरी को, आसुरी से पंचाशिका को और पंचाशिका से उनको प्राप्त हुई। इसमें उन्होने सांख्य दर्शन की 'षष्टितंत्र' नामक कृति का भी उल्लेख किया है। सांख्यकारिका में ७२ श्लोक हैं जो आर्या छन्द में लिखे हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि अन्तिम ३ श्लोक बाद में जोड़े गये (प्रक्षिप्त) हैं।

सांख्‍यकारिका पर विभिन्न विद्वानों द्वारा अनेक टीकाएँ की गयीं जिनमें युक्तिदीपिका, गौडपादभाष्‍यम्, जयमंगला, तत्‍वकौमुदी, नारायणकृत सांख्‍यचन्द्रिका आदि प्रमुख हैं। सांख्यकारिका पर सबसे प्राचीन भाष्य गौड़पाद द्वारा रचित है। दूसरा महत्वपूर्ण भाष्य वाचस्पति मिश्र द्वार रचित सांख्यतत्वकौमुदी है।

सांख्यकारिका का चीनी भाषा में अनुवाद ६ठी शती में हुआ। सन् १८३२ में क्रिश्चियन लासेन ने इसका लैटिन में अनुवाद किया। एच टी कोलब्रुक ने इसको सर्वप्रथम अंग्रेजीं में रूपान्तरित किया।

सांख्यकारिका का आरम्भिक श्लोक इस प्रकार है-

दुःखत्रयाऽभिघाताज्जिज्ञासा तदभिघातके हेतौ।
दुष्टे साऽपार्था चेन्नैकान्तात्यन्ततोऽभावात ॥
(तीन प्रकार के दुःख से (प्राणी) पीड़ित रहते हैं। अतः उसके अभिघातक (विनाशक) कारण को जानने की इच्छा करनी चाहिये। "दृष्ट (प्रत्यक्ष-लौकिक) उपायों से ही उस जिज्ञासा की पूर्ति हो जायेगी?" नहीं, (दृष्ट उपायों से) निश्चित रूप से और सदा के लिये दुःखों का निवारण नहीं होता।)

सांख्यकारिका, सांख्यदर्शन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रकरण ग्रन्थ है जिसने अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की है। आज सांख्यदर्शन के जो ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, उनमें व्याख्या-ग्रन्थ ही अधिक हैं। मूल ग्रन्थ तो केवल तीन ही प्राप्त होते हैं- सांख्यकारिका, तत्त्वसमास एवं सांख्यप्रवचनसूत्र। आज प्राप्त होने वाले सांख्यदर्शन के अन्य ग्रन्थ इन तीन मूल ग्रन्थों की ही टीका या व्याख्या के रूप में हैं। इन व्याख्या-ग्रन्थों में से अधिकांश ‘सांख्यकारिका’ की ही व्याख्याओं और इन व्याख्याओं की भी अनुव्याख्याओं के रूप में हैं। इस प्रकार ईश्वरकृष्ण की ‘सांख्यकारिका’ सांख्यदर्शन का प्रमुख प्रतिनिधि ग्रन्थ है।

शंकर आदि आचार्यों ने ही नहीं, अपितु ईसा की चौदहवीं शताब्दी तक के आचार्यों ने ‘तत्त्वसमास’ या ‘सांख्यप्रवचनसूत्र’ को अपने ग्रन्थों में उद्धृत न कर ‘सांख्यकारिका’ को ही उद्धृत किया है। साथ ही पन्द्रहवीं शताब्दी में होने वाले अनिरुद्ध से पूर्व किसी ने इन सूत्र-ग्रन्थों की व्याख्या भी नहीं की, जबकि विभिन्न विद्वानों के द्वारा बहुत पहले से ही ‘सांख्यकारिका’ की व्याख्याएँ प्रस्तुत की जा रही हैं। अतः स्पष्ट है कि सांख्यदर्शन के आज उपलब्ध होने वाले उक्त तीन मूल ग्रन्थों - सांख्यकारिका, तत्त्वसमास एवं सांख्य-प्रवचनसूत्र- में से ‘सांख्यकारिका’ प्राचीनतम है। चूंकि शंकर आदि आचार्यों के द्वारा इसे उद्धृत किया जाता रहा है, अतः यह भी स्पष्ट है कि यह सांख्यदर्शन की एक प्रामाणिक कृति मानी जाती रही है।

सांख्यकारिकाकार ईश्वरकृष्ण ने यह घोषणा भी की है कि सांख्य के प्रथम आचार्य परमर्षि कपिल ने जो ज्ञान अपने शिष्य आसुरि को दिया, उसे आसुरी ने अपने शिष्य पंचशिख को दिया, पंचशिख ने उसे विस्तृत किया और फिर उसके बाद शिष्य-परम्परा से प्राप्त-उसी विस्तृत ज्ञान को संक्षिप्त रूप से उन्होनें सांख्यकारिका की सत्तर कारिकाओं में प्रस्तुत कर दिया है। इस घोषणा से सांख्यकारिका की रूप में प्रामाणिकता स्पष्ट होती है कि इसमें सांख्य के परम्परागत ज्ञान को प्रस्तुत किया गया है। कहना न होगा कि इस ज्ञान और प्रामाणिकता के अनुरूप ही इस ग्रन्थ को दार्शनिक क्षेत्र में परम सम्मान प्राप्त हुआ है।

सांख्यकारिका की प्रमुख टीकाएँ

सांख्यकारिका को इसकी रचना के बाद से ही लोकप्रियता एवं प्रामाणिकता प्राप्त हुई कि प्रायः तभी से इसकी व्याख्याओं या टीकाओं की परम्परा चल पड़ी। इसकी सर्वप्राचीन वृत्ति माठर वृत्ति है। इस वृत्ति के रचयिता आचार्य माठर सम्राट् कनिष्क के काल में वर्तमान माने जाते हैं। इस प्रकार यह वृत्ति प्रथम शताब्दी ईसवी की रचना मानी जाती है। कालक्रम से माठरवृत्ति के बाद सांख्यकारिका की दूसरी प्रमुख व्याख्या गौडपादभाष्य मानी जाती है। विद्वानों का बहुमत इसके रचयिता गौडपाद को माण्डूक्यकारिका के रचयिता एवं अद्वैत वेदान्त के आचार्य गौडपाद से भिन्न मानने के पक्ष में हैं। सांख्यकारिका के व्याख्याकार गौडपाद का समय प्रायः ईसा की षष्ठ शताब्दी माना जाता है। कुछ विद्वान् ईसा की सप्तम शताब्दी मानते हैं। माठरवृत्ति और गौडपाद-भाष्य में बहुत से अंशों में साम्य के दर्शन होते हैं। गौडपादभाष्य संक्षिप्त होते हुए भी गम्भीर है।

सांख्यकारिका की ‘युक्तिदीपिका’ टीका भी प्राचीन टीकाओं में से एक है। इसके रचयिता का नाम अज्ञात है। इसमें प्राचीन सांख्याचार्यों के विभिन्न सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है। फलतः इस टीका से सांख्य-सिद्धान्तों की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। चूंकि इसमें वसुबंधु एवं दिंनाग आदि बौद्ध आचार्यों के मतों का उल्लेख है और साथ ही मीमांसकों में शबरस्वामी का निर्देश होते हुए कुमारिल या प्रभाकर का निर्देश नहीं है, अतः प्रतीत होता है कि यह उक्त बौद्ध आचार्यों से बाद की और कुमारिल से पूर्व की रचना है। कुमारिल का समय ईसा की सप्तम शताब्दी का अन्त और अष्टम शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है, अतः बहुत सम्भव है कि युक्ति-दीपिका ईसा की सप्तम शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना है। शंकराचार्य द्वारा विरचित ‘जयमंगला’ टीका भी सांख्यकारिका की प्रसिद्ध टीका है। विद्वानों का मत है कि यह टीका वाचस्पति मिश्र से पूर्व की रचना है, क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि ‘सांख्यतत्त्वकौमुदी’ में कुछ स्थलों पर इसके प्रतिपाद्यों का निर्देश या अनुसरण किया गया है।

आचार्य वाचस्पति मिश्र की ‘सांख्यतत्त्वकौमुदी’ टीका सांख्यकारिका की सर्वाधिक प्रसिद्ध टीका है। इसने दार्शनिक जगत् में पर्याप्त ख्याति एवं लोकप्रियता प्राप्त की है। इस टीका में सांख्यकारिका के प्रतिपाद्य विषय को पूर्णतः उद्घाटित करने का प्रयत्न किया गया है।

प्रमुख विवेचनीय विषय

  1. दुःखत्रय तथा उनका अपघात
  2. प्रमाण-विवेचन
  3. सत्कार्यवाद
  4. गुण विवेचन
  5. प्रकृति स्वरूप तथा उसके अस्तित्व की सिद्धि
  6. पुरूष स्वरूप, पुरूष के अस्तित्व की सिद्धि तथा पुरूष बहुत्व
  7. सष्ष्टि प्रक्रिया
  8. लिंग शरीर की अवधारणा
  9. प्रत्यय सर्ग की अवधारणा

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